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लड़की की घड़ी

laDki ki ghaDi

शिवांगी सौम्या

अन्य

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शिवांगी सौम्या

लड़की की घड़ी

शिवांगी सौम्या

और अधिकशिवांगी सौम्या

     

    एक

    पहले तो आठ बजते थे 
    तो छोड़ जाना पड़ता था ख़ुद को 
    एक गेट के बाहर 
    इस गेट के अंदर जाना 
    ख़ुद को रेडीमेड डब्बे में बंद करने जैसे होता है 
    जिसमें तो हर लड़की जाती है 
    यह आना-जाना इतना होता है कि 
    कभी पता नहीं चलता। 

    मैं गेट के अंदर जाने से पहले होती 
    मैं तब नहीं होता इस डब्बे का अस्तित्व
    मैं चलती सड़क पर 
    सड़क के साथ सड़क होती 
    उसके किनारे गुलमोहर के पेड़ से बरसे फूल 
    जो नीचे पसरे पड़े थे 
    कभी मैं उनके साथ वही पसार जाती 
    फिर आगे होते कागज़ के फूल के क़तार
    जो सड़क को दो भागों में बाँटते
    मैं भूल जाती सब कुछ और बन जाती
    उनके ऊपर रात में मँडराने वाला भँवरा
    क्योंकि क्लासेज़ के बाद
    यही वक़्त होता था
    जो अपना होता है। 
    जब आप-आप होते हो
    और मैं इस वक़्त
    शाम की सैर में
    शाम बन जाती
    और बन जाती
    शाम का आसमान
    उसके अँधेरे में डूबे पेड़
    स्ट्रीट लाइट में दिखते पत्ते 
    जो धीमी हवा में डोल रहे होते
    और बन जाती मैं काग़ज़ के फूल
    इस तरह मैं बनती मैं। 

    मगर ये सब खत्म हो जाता
    सात पचपन होते ही
    मेरी कलाई पर बन जाती घड़ी
    और मेरे पैर ख़ुद-ब-ख़ुद
    मुड़ जाते हैं
    बढ़ जाते हैं
    गेट की तरफ़
    घड़ी अमीबा की तरह बाँटती और हो जाती दो
    फिर शरीर की धमनियों से होती हुई
    मेरे दोनों पैर तक पहुँचती
    अब मेरे पैर टप-टप नहीं चल रहे होते
    मेरे पैर टिक-टिक चल रहे होते
    मेरे पैर पर लगी होती—घड़ी। 

    दो

    अब आने का समय साढ़े सात हो गया है
    मैं चलती जाती हूँ
    मेरे पैर मुड़ जाते है
    मेरा आधा शरीर भागना चाहता

    उस राह में जहाँ पर हैं रास्तों के दोनों ओर
    गोल्डन शावर पेड़
    उनके पत्ते जो शाम की हवा में झूल रहे होते हैं झूला
    और काग़ज़ के फूल जो रोड को बाँटते हैं
    निकाल रखे होते हैं हाथ
    आओ मिलो खेलने के लिए
    और होते हैं नीलकंठ उड़ते इस डाल से उस डाल
    बुला रहे होते मुझे
    चिढ़ा रहे होते मुझे
    लेकिन एक टिक-टिक सुनाई दी
    नहीं वो टप-टप था
    और मेरे पैर मुड़ गए
    मुझे गेट के अंदर जाना था
    रेडीमेड डब्बा मेरा इंतज़ार कर रहा था।

    तीन

    लोग गाय हैं
    वो मुड़ रहे हैं
    मो मो कर रहे हैं
    कह रहे हैं आ रहा हूँ
    और वो अंदर जा रहे हैं
    शायद रेडीमेड डब्बे में जाना
    ‘गाय’ होना है।

    चार

    यह कौन-सा सूरज निकला है
    कि आवाज़ों वाले पेड़ सूख गए
    जहाँ देखो सूरजमुखी है
    लोग सूरजमुखी
    जिधर उसकी रोशनी उधर वे
    और मैं हूँ गुलाब के बिना फूल वाला पेड़
    जिस पर बस काँटे ही काँटे हैं
    मैं देख रही हूँ सब कुछ
    सूरज भी
    सूरजमुखी भी
    घड़ी का बनना और बँटना
    रेडीमेड डब्बा
    गाय होना
    और मेरा चुनना
    कि मैं रहूँ बस मैं!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिवांगी सौम्या
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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