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किंतु मैं नहीं मरी

kintu main nahin mari

ज्याेति शोभा

अन्य

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ज्याेति शोभा

किंतु मैं नहीं मरी

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    नाम भानु गुप्ता था

    एक छोटी दुकान थी चाय की

    दूध की मीठी गंध से चौक गंधाता रहता

    और टपरी पर धुएँ के मेघ डोलते

    देखते ही पूछ लेता :

    केमोन आछो बाउदी!

    मारा गया कोरोना में

    मैं अब भी अच्छी हूँ

    नदी पार गाँव में कुम्हार आता था

    पूजा के कच्चे दीपक लेकर

    इस बार कराहता था खाट में

    और दीपक जलता जाता था मेरी देह के निकट

    जैसे सब आलोक से पूरित ही है संसार में

    जिस रिक्शे में हाट जाने का नियम था

    वह झोली भर निंबू लिए हाँक लगाता था गली में

    बोला : गाड़ी छीन ली मालिक ने

    भाड़ा नहीं दे पाया कई मास हुए

    फिर कई बार देखा उसे

    मेरे म्लान चित् की तरह

    पैर ऐसे चलते थे उसके जैसे अदृश्य पहिए पर चलते हैं

    ज़रा दूर के अस्पताल में

    देश-दिशावर से आते परिचित मारे गए

    जिनके नाम तक अज्ञात थे

    नीचे तक गिरा हुआ आँचल इसलिए भीगा

    क्योंकि पड़ोस में स्नान करते शव का जल ढलक गया इस तरफ़

    नदी पर बैठी नाव मारी गई

    दो शहरों के बीच की ज़मीन मारी गई

    बाबा मारे गए

    कविता मारी गई

    किंतु मैं नहीं मरी

    जैसे कभी नहीं मरती है उदासी

    श्वेत श्याम से रंगीन हो जाती है बस।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : समालोचन

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