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परायापन

parayapan

अनुवाद : रतनलाल 'जौहर'

शंभुनाथ भट्ट ‘हलीम’

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और अधिकशंभुनाथ भट्ट ‘हलीम’

    क्या तुम वह नहीं हो जिसको मैंने शुरू से ही चाहा

    तुम आँखों से ओझल हो जाती तो तड़प जाता था मेरा दिल

    खिल उठती थी मेरे हृदय की फुलवाड़ी तेरी हँसी से

    और परेशान करती मुझे तेरे माथे की शिकन

    तेरे बिखरे केश मुझे बावला कर देते

    और तेरा ठंडा व्यवहार मुझे भी ठंडा कर देता था

    यदि मैं तेरे चेहरे पर लालिमा देखता उभरती

    मैं फूले समाता कि मुझसे ग्रहण उतर गया है

    तुम जब कभी हल्के-हल्के पग भरती निकल जाती

    डर जाता मैं कि तुझे किसी की नज़र ना लगे

    मेरे हृदय का कबूतर भरता उड़ान तेरे प्यार में

    तुम जब कभी मुझे ‘आओ प्रिय’ कहकर बुलाती

    ऐसे लगता जैसे पहाड़ी नदी बल खाती वह आई है

    तुम जब मेरी ख़ातिर पलटकर देखती

    ज्यों जलधारा झरझराती ऊँचाई से गिरती

    तेरे घुँघरुओं पर बजने की बेकली छा जाती

    आता वही सुगंध लेकर हवा का झोंका

    जिस सुगंध ने मुझे बनाया था दीवाना तेरा

    ‘फुलय’ देखकर वह तेरा चेहरा याद आता मुझे

    जो मुझे देखते ही खिल उठता

    मेरे बोलों की नक़ल उतारने बोल उठती कोयल भी

    जब तक तू पर्वतों और टेकरियों से घूम फिर आती

    “गुलालों” के बीच जब तू चलती बल खाकर

    अनजाने में मुझे अपने वश में कर लेती

    क्या जादू था तेरी हँसिनी देह में

    कि मुझ अनजान को मंत्रबिद्ध कर देती

    फूलहारे की संगति में ही फूल का जीवन खिल उठता है

    ज्यों गंभीर भी हो नदी फिर भी उसमें रवानी आती है।

    पगले, फूलों के काँटों से गले लग रहे हो, ये तुम्हें छिन्नभिन्न कर देंगे

    पर मिलता नया संगीत, नया साज़ और नए तराने

    यौवन की मदमस्ती मिलती और तेज़ की आँखें नम हो जातीं

    जैसे छाया ग्रीष्म को सांत्वना देती निश्चिंत रहो

    भौंहों में वक्रता आती, आँखों में मस्ती और माथे पर चमक

    होंठ रसीले होते, चेहरे पर लालिमा छिटकती और दिल में चोरी

    पर वह चुपके-से अनायास मुस्काना

    पाँव में पायल की ज़ंजीर पड़ी हो जैसे पर संगीत हो मुक्त

    गला गलबंदनी से बँधा फिर भी हृदय खिला-सा

    तेरा वह ‘वनवुन’ जो मुझे लड़कपन से ही मोहित करता रहा

    जीते जी कैसे भूल पाऊँ उसे

    परंतु आज मुझे क्यों लगता है परायापन

    हमारे दिलों को दूर रखने की कोई साज़िश-सी हुई है जैसे

    कहीं मेरे शत्रु के बहकावे में तो नहीं आई

    इच्छाओं आकांक्षाओं की तू चिड़िया, तुझे जाल में फाँस तो नहीं दिया

    तुझे मेरे जानी दुश्मनों ने कुछ कहा तो नहीं

    कहीं तुझे मेरा मन बदलने का आभास तो नहीं हुआ

    मैं जानता हूँ कि प्रेम कोई सामयिक उफान नहीं होता

    दिलों का मिलन एक आदिकालीन बेकली है

    भाग्य या समय की आँधी इसे रोक नहीं सकती

    संसार का अंत है निश्चित परंतु नहीं है अंत प्रेम का

    यह सब कुछ जानकर भी क्यों मेरी नज़रें धुँधआई हैं

    कहीं मैं अपनी सादगी से तो नहीं भटका।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 64)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : शंभुनाथ भट्ट ‘हलीम’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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