कान्ह की छवि

kana ki chhawi

एम. पी. अप्पन

एम. पी. अप्पन

कान्ह की छवि

एम. पी. अप्पन

दीखती है छवि

चहूँ ओर उस कान्ह की,

स्वर्ग से उतरकर धरित्री को,

जो

अमृतमय करने

बार-बार आते हैं।

छितराते हैं मुसमान के फूल

पूर्वी शैलों पर, खिले वनस्पतियों पर

श्रीकर विभात में

एक-रस-लीन हो सारे जन

प्रमुदित हो जाते हैं!

इस संसार में समा नहीं जो जाता

वही मधुर प्रेम

श्यामल छवि होकर शोभता है!

मधुर-मधुर गान की मादकता में

सब मानसों को मुग्ध करने वाले

आनंद-मूर्ति हे, कोमल श्यामल,

अपनी अद्भुत लीला से तूने

जीवन के त्योहार की

व्याख्या तो की है।

छवि तेरी नूतन

इस प्रभात में देखकर सारा जगत

पुलकित हो जाता है।

कर्म-मार्ग में निर्मल प्रकाश फैलाकर

शर्मद होकर

तू ज्योतिर्मय विराजता है!

तू बनकर तलवार

नित काट देता है

विष उगलने वाले अधर्म का सिर

जब-जब शुभ आदर्शों में

व्यापती शिथिलता

तब-तब तू आश्रय अविलम्ब है देता।

धरित्री को स्वर्ग से मिलाते हुए

तू सदैव नील जंजीर बने

रहता है शोभित

पौरुष का नीरव पूरक बन

आत्मा की सारी निर्वृति बन

रहता है तू विजयी बन।

स्रोत :
  • पुस्तक : गौरी शंकर (पृष्ठ 32)
  • रचनाकार : एम. पी. अप्पन
  • प्रकाशन : केरल हिंदी साहित्य परिषद
  • संस्करण : 1981

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