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मनोज कुमार झा

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और अधिकमनोज कुमार झा

    ऐसे नहीं खुला कहन रहन का फाँट मेरे लिए

    कि किसी बाबा जी को खाते देख लिया अंडा

    कि रामनामी ओढ़े किसी वृद्ध को तृप्त मछली-भात खाकर

    मैंने तो बाढ़ को लोकगीतों का नमक सोखते देखा है

    देखा है वृद्धाओं को पान चबाते

    छुपाते थूक का ख़ून बच्चों से

    मैं उस भूतपूर्व देहजीवा की दुकान से अक्सर मूढ़ी ख़रीदता हूँ

    जिसकी माँ बदनाम ठिकानों पर उसके साथ जाती थी काँपती

    कि बेटी को रात की राह से डर लगता था

    वह जो मेरा सबसे ज़हीन साथी था

    मेरा भाई, जिसके शरीर के आधे रोएँ मेरे थे

    जिसने तोड़ी थी कलाई क्रिकेट में एक रन बचाने

    सारी रात जगा रहा माँगुर मछरी की ताक में

    वो इकतीस मार्च दो हजार दस को

    बंबई, कोलकाता, लुधियाना भटकते-भटकते

    शाम के तीन बजे मरा सल्फास खाकर अपने गाँव में

    और किताब से फाड़े गए हाशिए पर लिखा

    पागल होने के बदले मुझे यह करना पड़ रहा है

    मैं मरने का कारण गोया नहीं लिख रहा

    कर रहा हूँ प्रार्थना अपने प्रियजनों से

    कि जो क़र्ज़ मैंने उठाए थे

    हो सके तो उसे माँगे मेरी वृद्ध माता से

    एक मरते हुए आदमी को बस इतना सहारा दें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज कुमार झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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