काला सागर
kala sagar
खोती जा रही हूँ
इस शहर से, इस मुल्क से
सूरज की दिशा के साथ
उसकी बदलती चमक में
इस मुल्क के दरवाज़े पर
अपनी आख़िरी पद्चाप पर कितना ठिठक गई हूँ
कि चाँद भी अब दो-चार होने की बात करने लगा
अब सूरज कई हिस्से में
अपनी चमक को बाँटने लगा है
अंबर एक नया है मेरे वास्ते
बहुत नया कि उसके तारे और चाँद के रंग का
मुझे अभी पता नहीं
शायद दूसरे रंग का चाँद
तीसरे रंग के तारे
और चौथे रंग के सूरज में
पाँचवाँ रंग जो धरती होगी
धूसर होगा वो
बहुत दूर जा चुकी हूँ
बहुत करीब ख़ुद के
कि मेरे गिर्द कोई नहीं अब
सिवाय दूसरे रंग के चाँद
तीसरे रंग के तारे
चौथे रंग के सूरज
और पाँचवीं धूसर धरती के
खो गई हूँ टीले के मैदान में
सूरज की तीक्ष्ण रोशनी से बनते
उजले प्रतिबिंब में
टीले की छत मेरी प्यास की तस्दीक करती है
कभी जब तुम्हारे शहर
तुम्हारे मुल्क और
तुम्हारी धरती से जुड़ी थी
वहाँ प्रेम-नगीना छोड़ दिया
उन्हें खोजने की कामना में
तुम दुआओं की चादर बीनने लगे हो
सलामती की
ज़िंदगी की
और पूरनमास की
तुम छूट गए वक़्त के पीछे मुड़ना चाहते हो
ढूँढ़ रहे हो मुझे
मैं तो जलावतन हुई हूँ
समुद्र की अंतहीन मौजों में
दूर आ गई हूँ बहुत
अरब सागर के पास
बाल्टिक सागर से भी पार
भूमध्य सागर के पास
ज़जीरा हूँ अब
अंतहीन लहरों और उफानों में
मैं काले सागर के पास हूँ!
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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