जीवन की ही जय है
jiwan ki hi jay hai
मृषा मृत्यु का भय है
जीवन की ही जय है
जीवन ही जड़ जमा रहा है
नीत नव वैभव कमा रहा है
पिता पुत्र में समा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।
नया जन्म ही जग पाता है,
मरण मूढ़-सा रह जाता है,
एक बीज सौ उपजाता है।
स्रष्टा बड़ा सदय है,
जीवन की ही जय है।
जीवन पर सौ बार मरूँ मैं,
क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं?
यदि न उचित उपयोग करूँ मैं,
तो फिर महाप्रलय है,
जीवन की ही जय है।
- पुस्तक : मैथिलीशरण गुप्त ग्रंथावली, खंड-12 (पृष्ठ 201)
- संपादक : कृष्णादत्त पालीवाल
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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