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जहाज़ में उड़ते हुए

jahaz mein uDte hue

रमेश क्षितिज

रमेश क्षितिज

जहाज़ में उड़ते हुए

रमेश क्षितिज
   
खिड़की के पास बैठकर जहाज़ के अंदर
किसी मुस्तफ़ा फ़लक पे परवाज़ कर रहा हूँ परिंदे-सा
 
मेरे पर के नीचे हैं दुपट्टे के फेर-से लतरते हुए रास्ते
दरिया के किनारे बचपन में बनाए हुए
बालू के घर जैसे छोटे-छोटे पर्वत
और वक़्त काटने को बे-मक़सद
सैर-ओ-तफ़रीह कर रहे सैयाहा-से बादल
 
दिन भर परवाज़ करते हुए नापी होगी मैंने
कभी भी न छू सकने वाली ऊँचाई
सौ-सौ चोटियाँ या कभी नहीं पहुँचा हुआ प्राचीन शहर
तय किए होंगे पल भर में
ताउम्र चलकर भी न ख़त्म होने वाले रास्ते!
 
एक ही दिन में महसूस किया अनेक ऋतुओं को
जहाज़ में चढ़ते वक़्त रिमझिम वर्षा हो रही थी काठमांडू में
बैंकॉक की शदीद गर्मी
टोकियो की कंपकंपाती सर्दी
एक ही दिन भोगा आज
 
हमेशा याद आने वाली स्मृति की निशानी
देकर जुदा हुए कुछ भले आदमी सफ़र में
जिनके साथ फिर कभी मुलाक़ात न हो शायद!
 
जहाज़ के अंदर प्रसारण हो रहा है इस वक़्त
अवतरण की सूचना
मैं हूँ कि मानो सुन रहा हूँ जैसे
कोई दिव्यवाणी — बेइंतहा जी सको तो अर्थपूर्ण लम्हों को
और हवाई यात्रा-सा बन सके मनुष्य का जीवन
तो बेशुमार होती है दो दिन की ज़िंदगी!  
 
स्रोत :
  • रचनाकार : रमेश क्षितिज
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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