नदियों के बारे में लिखना बंद करो
शहरों को डुबाती हैं नदियाँ अपने प्रलय से
प्रतीक्षित बरसात समुंदरों की सृष्टि करती है
हुगली तुम नदी नहीं समुद्र हो
कल्पांतर हो बहती हुई झोंपड़ियाँ हो
तड़पते हुए जानवर
भौंकने में असमर्थ कुत्ते
भूख-भूली बिल्लियाँ हो
शर्म-वंचित कुवाँरी लड़कियाँ हो
बच्चों को नहीं खोजने वाली माँ
लंबे पैरों का सपना देखने वाले मज़दूर
शहर की नींद से नहीं जागने वाले शरणार्थी हो
स्वर्गीय उदार जनों की स्तुति करने वाले भिखमंगे हो
हुगली तुम अंतिम सत्य हो
अँधेरे का आलिंगन हो
नदियों के बारे में अब मत गाओ
बरसों की गंदगी भरी गटरों को
वह नए जल से शुद्ध करेगी
गंगा में नहा-नहाकर थकी सड़कों को
पुनर्जन्म देगी
रोते हुए लोगों के आँसुओं को इकट्ठा कर
समुद्र-जल के खारेपन को दुगुना कर देगी
जड़ विचारों को परस्पर गूँथकर
अंतहीन जुलूस को पंक्तिबद्ध कर
बिखरे नारों को वह एकजुट कर देगी
हुगली में बाढ़
आकाशवाणी में विवाद
दूरदर्शन में दृश्यों का प्रलय है
पिघलते पापों के बर्फ़ से गंगा की महिमा है
दुष्टों के मन-द्रवित बंग-गरिमा
ऋतुओं के गायक रवींद्र की स्वर-विह्वलता
शहरों का शहर कलकत्ता
हुगली के भुजपाश में सबकुछ दबता है,
विस्मय रात्रि उतरी है
धर्मतल्ला लेनिन सरणि में बदलता है
'शतरंज के खिलाड़ी’ में इतिहास
उसाँसें लेता है
विवेकानंद की निगाहों में विक्टोरिया-स्मारक
धुँधला हो रहा है
राष्ट्रीय पुस्तकालय में वल्लतोल पूजे जाते हैं
टूटकर गिरते शिखरों
तड़पकर विच्छिन होते बादलों
और प्रचंड तूफ़ानों के सीत्कारों के ऊपर
क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का विद्रोही दहकता है
जाड़े से जमी हुई सड़कों पर
सिसकते हुए अस्तित्वहीन होते बुदबुदों में
काँपते डगमगाते दिशाहीन हो
भूलुंठित पक्षियों के पंखों की फड़फड़ाहट में
वनलता सेन जीवनानंद को ढूँढ़ती भटकती है
दुर्गंधियों को छिपाए गोपनीय ज़ख़्म के निशानों के साथ
अकाल के दुःखों से त्रस्त
गाँवों से शहर की ओर औचक आए दुःस्वप्न
हड्डियों से अलगाए स्तनों को दुहती भूखें
चौरंगी पर चबेना चबाता वर्तमान
दृश्य नगर के नेपथ्य में खड़ा काँपता अदृश्य नगर
शहर की जड़ों को टटोलती सूँघती नदी
नदी को लाँघता मज्जा रहित हड्डियों से गूँथा हुआ पुल
नगर की परी हावड़ा की ओर संकेत करती पटरियाँ
निःशब्दता को ढूँढ़ते थका शोर
नरेश, नरेश। जन्मभूमि के विच्छिन
उस अर्द्धखण्ड से परलोकवासी पिता की गुहार
स्वर्णभूमि को दुख-सागर बनाती बाढ़ और बरसात
स्वर्णभूमि को कलई का पतरा बनाती
धार्मिक विद्वेष के नेतृत्व की पूँछ दुहराती है—
नरेश, नरेश!
हुगली की सर्प-तरंगें, पद्मा की सर्प-लहरें
ज़ोर से गरजकर पुकारती हैं गिरीश! महेश! सुरेश!
खड़गधारिणी काली की परछाई में जमा विपन्नता का इतिहास
क्षत-विक्षत गटरों का पुण्य-स्नान
प्रवाहित शांति-निकेतन की शांति-खोज
थम जा हुगली थम जा
तू एक नदी ही है बहती हुई एक गटर
हल से खुदी दरार...
कवि और कहानीकार गाँवों की जड़ों को बचाने गए हैं
गाँव वाले शहरों में शरण ढूँढ़ते आए हैं
हुगली को धमकाकर पालतू बनाने की कोशिश में
मंत्री लोग घूमते-फिरते हैं
पाँच सौ लोग मर गए
बह गए छः सौ
सात सौ लापता।
प्रत्येक ऋत का अपना संगीत है
होरेन मुखर्जी ने ज्योति बसु से कहा—
समाजवाद जल्दी ही आने को लगता है
सिद्धार्थ शंकर पी.सी. सेन से बोले
यह मैंने पहले ही कहा था,
हुगली हँस पड़ी—
कुछ नहीं अनकहा इनका।
पुलों के नीचे से बहने में संकोच करती हुगली
जंजीरों में पड़ा बजता हावड़ा
विभाजित अधिकारों से भभकती ज़ख़्म की दुर्गंध
यहाँ नदियों की घाटी की सभ्यता थी
तब बाढ़ें बेहद सस्ती थीं
उस ज़माने में वर्षाओं के देश से आए
एक बेचारे प्रवासी कवि ने
इतिहास के कान में कुछ फुसफुसाया था
जिसका कुछ भी विवरण
अब कहीं शेष नहीं
एक नदी
और एक शहर के परस्पर एक-दूसरे को
निगलने के स्मारक को
आपने देखा
आपने सुना
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 225)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : अय्यप्प पणिक्कर
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
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