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हथेली में काँच है

hatheli mein kanch hai

प्रदीप अवस्थी

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प्रदीप अवस्थी

हथेली में काँच है

प्रदीप अवस्थी

और अधिकप्रदीप अवस्थी

    अपनी ठंडी हथेलियाँ मेरे माथे पर मल दो

    मेरी दिशाहीनता को उम्र भर लंबी सुंदर सड़क मिले

    इस अँगीठी से बाहर निकालो मेरे सिर को

    उन्हें सिखाओ कुछ तो तौर-तरीक़े

    इतने साल लगे, एक-एक सरिया निकाला दिमाग़ से

    उनका पूरा गट्ठर फिर लेकर क्यों दौड़ पड़े हो मेरे पीछे

    वे बच्चे मर गए जिनकी मैंने कल्पना की थी

    आज भी दुखती है मेरी कोख

    तुम्हें इस पर लाठियाँ बरसाने में क्या मज़ा आता है

    कितने प्यारे लोग हैं वे सब

    मेरी सूखी हुई नसों को क्यों बजाते हैं फिर

    युद्ध क्यों नहीं होने चाहिए, मैं इस पर कविताएँ लिखना चाहता था

    तुम एक लड़की को उसके स्वप्न में घुसकर दुःख देने लगे लेकिन

    जो फूल हम मिलकर लगाना चाहते हैं अपने बाग़ीचे में

    तुम एक बाघिन बनकर उन्हें कुचलने चली आईं

    भला क्यों बनाना चाहते हो मुझे जानवर

    जब मैं भूल जाना चाहता हूँ

    हथेली में काँच है और मैं मुट्ठी भींचना चाहता हूँ

    और यह भी कि दर्द हो

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रदीप अवस्थी
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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