हमने यह देखा

hamne ye dekha

रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय

हमने यह देखा

रघुवीर सहाय

यह क्या है जो इस जूते में गड़ता है

यह कील कहाँ से रोज़ निकल आती है

इस दुःख को रोज़ समझना क्यों पड़ता है

फिर कल की जैसी याद तुम्हारी आई

वैसी ही करुणा है वैसी ही तृष्णा

इस बार मगर कल से है कम दुखदायी

फिर ख़त्म हो गए अपने सारे पैसे

सब चला गया सुख-दुःख बट्टेखाते में

रह गए फ़क़त हम तुम वैसे के वैसे

फिर अपना पिछला दर्द अचानक जागा

फिर हमने जी लेने की तैयारी की

उस वक़्त तक़ाज़ा करने आया आग़ा

इस मुश्किल में हमने आख़िर क्या सीखा

इस कष्ट उठाने का कोई मतलब है

या है यह केवल अत्याचार किसी का

''यह तो है ही'', शुभचिंतक यों कहते हैं,

अपमान, अकेलापन, फ़ाक़ा, बीमारी

क्यों है? औ' वह सब हम ही क्यों सहते हैं?

हम ही क्यों यह तक़लीफ़ उठाते जाएँ

दुख देने वाले दुख दें और हमारे

उस दुख के गौरव की कविताएँ गाएँ!

यह है अभिजात तरीक़े की मक्कारी

इसमें सब दुख हैं, केवल यहीं नहीं हैं

—अपमान, अकेलापन, फ़ाक़ा, बीमारी

जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम

है ख़ास ढंग दुख से ऊपर उठने का

है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म

जीवन उनके ख़ातिर है खाना-कपड़ा

वह मिल जाता है और उन्हें क्या चहिए

आख़िर फिर किसका रह जाता है झगड़ा

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सबसे अच्छे हैं

पर नहीं, हमें भी राह दीख पड़ती है

चलने की पीड़ा कम होती जाती है

जैसे-जैसे वह कील और गड़ती है

हमने यह देखा दर्द बहुत भारी है

आवश्यक भी है, जीवन भी देता है

—यह नहीं कि उससे कुछ अपनी यारी है

हमने यह देखा अपनी सब इच्छाएँ

रह ही जाती हैं थोड़ी बहुत अधूरी

—यह नहीं कि यह कहकर मन को समझाएँ

—यह नहीं कि जो जैसा है वैसा ही हो

यह नहीं कि सब कुछ हँसते-हँसते ले लें

देने वाले का मतलब कैसा ही हो

—यह नहीं कि हमको एक कष्ट है कोई

जो किसी तरह कम हो जाए, बस छुट्टी

कोई आकर कर दे अपनी दिलजोई

वह दर्द नहीं मेरे ही जीवन का है

वह दर्द नहीं है सिर्फ़ बिरह की पीड़ा

वह दर्द ज़िंदगी के उखड़ेपन का है

वह दर्द अगर ये आँखें नम कर जाए

करुणा कर आप हमारे आँसू पोंछे

—वह प्यार कहीं यह दर्द कम कर जाए

चिकने कपड़े, अच्छी औरत, ओहदा भी

फ़िलहाल सभी नाकाफ़ी बहलावे हैं

ये तो पा सकता है कोई शोहदा भी

जब ठौर नहीं मिलता है कोई दिल को

हम जो पाते हैं उस पर लुट जाते हैं

क्या यही पहुँचना होता है मंज़िल को?

हमको तो अपने हक़ सब मिलने चहिए

हम तो सारा-का-सारा लेंगे जीवन

'कम-से-कम' वाली बात हमसे कहिए।

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प्रणव मिश्र 'तेजस'

प्रणव मिश्र 'तेजस'

स्रोत :
  • पुस्तक : रघुवीर सहाय संचयिता (पृष्ठ 271)
  • संपादक : कृष्ण कुमार
  • रचनाकार : रघुवीर सहाय
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2003

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