बहुत संभव है क़िस्सा ये हो—
ईश्वर ने फ़रिश्ते रचे दूसरे दिन
ताकि कहीं इंसान यह न मान बैठे
कि उन्होंने मदद की थी उसकी
सातों आसमान और धरती को रचने में।
दरअसल, थे वे शुरू से ही,
बस वे अभी फ़रिश्ते नहीं हुए थे—
वे तब थे देव,
आदिजीव।
और वे ही थे जिन्होंने रचे आसमान और धरती,
दरअसल उन्होंने रचा उसे भी!
बाद में उसने उनको पछाड़ दिया,
और परवर्ती अनधिकृत अपहर्ताओं की ही तरह,
फिर से लिख डाला इतिहास इस सबका
अपने अनुकूल।
चुनाँचे,
ओढ़कर झीना-सा बाना फ़रिश्तों का,
वे पुराने देवता हो गए इकट्ठे, कमोबेश गुमनाम फ़ौजी रिसाले।
कुछेक को, जिनके निजी नाम थे असंभव-से—
यूरियल, रफाएल, शामइएल—
दे दी गईं अग्रणी भूमिकाएँ।
कुछ हो गए बाग़ी ईश्वर से,
जैसे रहाब, सागर का फ़रिश्ता—
वह दफ़न हो गया पानी के नीचे,
जो तभी से गमकने लगा खारापन लेकर।
लेकिन अमूमन फ़रिश्तों ने ईश्वर का कहा माना
और एकसुर होकर उसकी प्रशंसा की,
अरब-खरब गायक मंडलियाँ बना कर।
या यूँ कहें कि क़िस्सा यही बताया जाता है।
दरअसल, अगर क्षण भर सोचने लगो तो
ये हैं तो अनर्गल—
ऐसी भी क्या महत्त्व की आकांक्षा!
तब क्या वे पुरा देव कतई जज़्ब हो चुके हैं
इन फ़रिश्ताई फ़ौजों में?
या कि वे अपनी कृति ईश्वर का
तख्ता पलटने की साजिश में लगे हैं?
गुमान
ये होता है कि मसला वही है हमेशा का :
वे सब इस क़दर लोकतंत्रवादी हैं कि
तय नहीं कर पाते अपना इक सरपरस्त।
अव्वल तो उनकी भयानक भूल यह थी कि
उन्होंने ईश्वर को रचा।
उससे तवक्को थी कि वह निभाएगा
कुछ एक आम दस्तूर,
न कि उन पर हावी हो हुक्म चलाएगा।
अब, जब तक वे इसकी तह तक नहीं जाते
कि अपने ही बीच किसी एक को चुनें कैसे
जो हो बराबर के लोगों में ज्येष्ठ,
बग़ावत का बिगुल बज नहीं सकता।
और जब वे इसी पर बहस में लगे हैं,
जारी है ईश्वर का राज,
और लामुहाला वे फ़रिश्ते
गाते हैं उसके गुण, गाते हैं उसके गुण, गाते हैं उसके गुण।
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 231)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : डैनियल वाएसबोर्ट
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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