वासवदत्ता

ghasawdatta

सोहनलाल द्विवेदी

सोहनलाल द्विवेदी

वासवदत्ता

सोहनलाल द्विवेदी

आज से बहुत दिन पहले की कहता हूँ बात

जब कि

स्वर्णयुग का खिला था मधुर प्रभात

भारत वे प्राची में;

देश धन-धान्य से पूर्ण था,

थे हम परतंत्र किसी बंधन में,

आए थे मुग़ल भी इस देश में

अपनी थी संस्कृति अछूत, पूत पावन-विचारों से

अपना था दिवस, और, अपनी थी सभी बात।

उसी समय,

गौतम के गौरव का, वैभव का,

गूँजा था विराद गान;

गृह-गृह आमंत्रण-निमंत्र तथागत का था,

होता वह धन्य

पहुँच जाते थे देव जहाँ।

यों ही, प्रतिस्पर्धा चला करती थी दिन-रात,

किसके गृह होंगे यह अतिथि आज?

गौतम थे,

तरुण-अरुण-करुण भी से वरुण-सम

कांतिमान, तेजमान;

कितनी ही सुंदरियाँ, देख देख दिव्य रूप

होंती बलिहार श्रीचरणों में तथागत के।

एक दिवस,

निर्जन में

मधुऋतु की संध्या में

जब कि।

खिल उठी थी फुल्ल मालती, लताएँ चारु,

गंध-अंध मधुप थे दौड़ रहे चारों ओर

सुषमा की प्रतिमा,

एक तरुणी दिवागना-सी

विधि की अनृप रचना-सी,

मादक मदिरा-सी

मोहक इंद्रधनुष-सी

आनत हो चरणों में पाणिपल्लव कर संपुटित,

आँखों में जादू-सी फेरती,

उन्न्त कुचकलशी को अचंल से ढकती-सी

लज्जा से छुई मुई बनती सिकुड़ती-सी

बोली वीणा वाणी में

‘अतिथि देव?

यौवन यह अर्पित पद-पद्य में है,

इसको स्वीकार करो,

यह तिरस्कार करो,

यौवन यह, रूप यह, जिसे प्राप्त करने को

यती यत्र करते, तपी तपते पंचम्नि नित्य,

बड़े-बड़े चक्रवर्ती मुकुट विसर्जित कर

चाहते अधर का दान, चाहते मृकुटि का दान।

तप्त उर शीतल करो गाढ परिरंमण दे।’

गौतम यह देखकर,

माया सब लेखकर,

चकित से विस्मित-से भ्रमित-से, अवाक्-से,

लगे देखने सी लीला वासवदत्ता की,

रूप की,

यौवन की,

यौवन के आग्रह की,

प्राणों के कंपन की,

सिहरन की।

शांत हो बोले साधु

’देवी, क्या कहती हो?

सावधान होके ज़रा सोचातो

कहती क्या?

किससे फिर?

आज मैं अतिथि नहीं बनूँगा इस गृह में।’

इतना कह

शांत चित्त चले गए आर्यपुत्र

क्लांतचित्त, भ्रांतदेह, आंत बुद्धि लिए, पर, बेठी रहो

वासवदत्ता मलीन,

फूट-फूट रोती रही अपने दुर्भाग्य पर,

विनय पर, अनुनय पर, आग्रह अनुरोध पर,

अपने दुर्बोध पर।

जलते उर-मरुथल में एक था सहारा किंतु,

गौतम थे कह गए

‘आऊँगा देवि। फिर,

होगी जब कभी तुम्हें

मेरी टोह बाट में।’

होती अधीर पीर उर में समेटे सब

नयनों में नीर, वासवदत्ता भी शांत हुई।

बीते दिवस मास,

बीते पक्ष, वर्ष,

बीते युग कितने?

आज वह तरुणी नवीन

दृढ़ है हो चली,

उसका शरीर आज जर्जर है, दुर्बल है,

कोई नहीं पूछता कहाँ रहती है वह।

आज धूलि घूसरित कलिका पड़ी है छिन्न।

भिन्न हैं सभी अभिन्न।

खिन्न चित्त को है नहीं पूछता कहीं भी कोई।

उड़ गए मधुप वे, जो कलिका में मधु देख

केसर कुंकुम देख

रूपलब्ध होकर प्रबुद्ध बढ़े

आते इस ओर खिंचे;

तोड़कर संबंध जाति का, कुल का, समाज का,

आज नहीं कोई कहाँ आता है

दिखाई देता।

उड़ गए, वैभव-विभव माणिक-मणि

छाया-से भाया से।

आज वासवदत्ता पड़ी है अनाथ।

साथ नहीं कोई;

उसका शरीर दुर्गंधित है

अंग-अंग सड़ रहा है आज

पीप पड़ गई है,

व्याधि उपजी है ऐसी कि, आते नहीं वैद्य भी,

आँखें धँसी, ऊध्वंश्वास,

मूर्च्छित-सी पढ़ी है वह।

इतने ही में द्वार में चक्का लगा ज़ोर से,

आया त्यों ही झोंका एक मलयानल का भी

आया कुछ होश वासवदत्ता के चित्त में

बोली वासवदत्ता,

‘कौन?’

‘मैं हूँ तथागत।

आज आया हूँ अतिथि बन।’

स्रोत :
  • पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 580)
  • रचनाकार : सोहनलाल द्विवेदी
  • प्रकाशन : साहित्य प्रेस
  • संस्करण : 1953

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