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गमले में आदमी

gamle mein adami

अखिलेश जायसवाल

अखिलेश जायसवाल

गमले में आदमी

अखिलेश जायसवाल

जड़ें धरती से जोड़ने की इच्छा,

आकाश छूने की इच्छा,

बाहें फैलाने की इच्छा

और हवा के साथ गाने की इच्छा,

इस तरह से जन्म लेता है

एक पेड़, एक फूल और फल।

यूँ तो धरती कम थी,

पहाड़ भी थे,

नदी और तालाब भी थे

लेकिन हमने एक संस्कृति का विकास किया—

गमलों में फूल खिलाने की,

गमलों में पेड़ लगाने की

और उसे घर के किसी कोने में सजाने की।

हालाँकि हम बहुत ख़ुश थे

गमलों में पेड़ लगाकर,

उसमें लगे छोटे फलों को देखकर

और एक विशालता को संकीर्णता में क़ैद कर।

लेकिन यह एक चाल थी—

धरती और जड़ों के विरुद्ध,

बाहों के विरुद्ध,

ऊँचाई के विरुद्ध

और संगीत और सपनों के विरुद्ध।

इससे बे-ख़बर होकर

हमने देखा-देखी अंधाधुंध गमले लगाए

और पूरी धरती को अपने-अपने गमलों में बाँट लिया।

गमले लगाते-लगाते

एक सुबह हमने ख़ुद को गमलों में खड़े पाया।

रूपांतरण और मूल्यों के मरने की प्रक्रिया

कुछ ऐसे ही चुपके से होती है

कि आदमी को आभास तक नहीं होता

और अंदर से पूरा का पूरा ख़ाली हो चुका होता है,

केवल उसकी ख़ाल बची रह जाती है

जिसे हम ख़ाल का मोटा होना कहते हैं।

नुकीले से नुकीला शब्द

गमले में आते ही कुंद हो जाता है,

ऊँघने लगता है

और कहीं हो रहे हमले से अनजान रह जाता है।

उदार से उदार धर्म

गमले में आकर काठ बन जाता है

और राजनीति की सिगड़ी सुलगाने का

सामान बन जाता है।

एक विराट भावना

गमले में खड़ी होते ही पीली पड़ जाती है

और रंग बदलने की कला में माहिर हो जाती है।

जड़ें रुद्ध होने से ऊँचाई भी रुद्ध हो जाती है,

विस्तार सीमित होने से संवेदना भी सिकुड़ जाती है,

फिर एक दिन चुल्लू की गहराई हमारे लिए काफ़ी होगी

और एक कुकुरमुत्ते की ऊँचाई हमारा मानक होगी।

स्रोत :
  • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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