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एक झील जंगल में

ek jheel jangal mein

निकोलाय ज़बोलोत्स्की

अन्य

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निकोलाय ज़बोलोत्स्की

एक झील जंगल में

निकोलाय ज़बोलोत्स्की

और अधिकनिकोलाय ज़बोलोत्स्की

     

    जंगल के अंधकार में
    फिर चमक उठा
    निद्रा में जकड़ा
    बिल्लौरी काँच का प्याला।

    पेड़ों के झगड़ों, भेड़ियों की मुठभेड़ के बीच
    जहाँ वनस्पतियों का रस पीते हैं कीड़े,
    जहाँ उपद्रव मचाते हैं तने, कराहते हैं फूल,
    जहाँ हिंस्र प्राणियों पर शासन चलाती है क़ुदरत,
    सूखे झाड़ों को अलग करता
    मैं चला आया तुम्हारी तरफ़
    और रुक गया बर्फ़ की तरह तुम्हारे प्रवेश-द्वार पर।

    आर्द्रता का एक पवित्र अंश फैला हुआ था यहाँ
    घड़ों का मुकुट और घास का चोला पहने,
    गले में बाँसुरियों से बना सूखा कंठहार धारण किए।
    यही अंश शरणस्थली था मछलियों और बतख़ों का।
    सब कुछ यहाँ कितना अद्भुत,  
    कितना शांत और कितना अर्थपूर्ण!
    ऐसे दुर्लभ वनों को कहाँ से प्राप्त हुई इतनी महानता?
    कैसे उन्माद में नहीं डूबेंगे पक्षियों के झुंड यहाँ?
    कैसे नींद नहीं आएगी उन्हें मधुर लोरियाँ सुनते?
    केवल एक टिटिहरी है जिसे शिकायत है अपनी क़िस्मत से
    न जाने कब से बेमतलब फूँके जा रही है बाँसुरी।

    झील है कि लेटी है साँझ के शांत आलोक में,
    लेटी है बहुत गहरे, बिना हिले चमकती हुई।
    एक कोने से दूसरे कोने तक पंक्तियों में जुड़े
    मोमबत्तियों की तरह खड़े हैं शिखरों पर चीड़ के पेड़।
    तरह-तरह के विचारों में खोया
    चमक रहा था पारदर्शी जल का अथाह प्याला
    इस तरह के असीम अवसाद में डूबे मरीज़ की आँख को
    साँझ के तारे की पहली चमक में
    कोई सहानुभूति नहीं होती मरीज़ से जिसका अंग होती है वह स्वयं,
    वह बस चमकती रहती है निहारती रात का आकाश।
    पालतू पशु और वन्य प्राणी एक साथ
    सींगों समेत अपने सिर घुसाते हैं देवदारुओं के बीच से
    सच्चाई के स्रोत, वपतिस्मा के जलपात्र की ओर,
    झुकते हैं जी-भर अमृत पीने के लिए। 

         
    स्रोत :
    • पुस्तक : नियति की अज्ञात इच्छाएँ (पृष्ठ 100)
    • रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
    • प्रकाशन : प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
    • संस्करण : 2016

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