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माँ और आग

man aur aag

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

अन्य

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और अधिकविश्वनाथ प्रसाद तिवारी

    यह उस समय की बात है

    जब माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था

    माँ थोड़ी-सी आग जलाकर रख देती

    सबेरे रोटी सेंकने के लिए

    रात को जब सभी सो जाते

    माँ आग को ऐसे ढककर छिपाती

    एक कोने में

    जैसे कोई रतन हो अमोल

    जैसे कोई शिशु हो मुलायम

    जैसे कोई दुल्हन हो लाल-लाल

    मेघ गरजते थे रातों को

    कड़कती थी बिजली

    खेतों में फेंकरते थे सियार

    और गलियों में रोते थे कुत्ते

    हम डर से चिपक जाते

    माँ की गोद में

    उस अँधेरे की जंग में

    माँ के लिए कवच-कुंडल थी आग

    राख से लिपटी

    माँ के दिल की तरह धुकधुकाती

    माँ के सपनों-सी दहकती

    माँ की इच्छाओं-सी सुलगती

    माँ हमें ढाढ़स देती—

    ‘घर में आग है

    तो कोई नहीं सकता भूत-प्रेत’

    अँधेरे में वह धीरे से उठती

    आग को और सावधानी से

    छिपा देती राख में

    जैसे अपने आँचल से ढककर हमें दूध पिला रही हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आखर अनंत (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1991

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