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एक कम

ek kam

विष्णु खरे

अन्य

अन्य

और अधिकविष्णु खरे

     

     

    1947 के बाद से
    इतने लोगों को इतने तरीक़ों से
    आत्म निर्भर, मालामाल और गतिशील होते देखा है
    कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
    पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
    तो जान लेता हूँ
    मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
    मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
    या मैं भला-चंगा हूँ और कामचोर और
    एक मामूली धोखेबाज़
    लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच, लज्जा, परेशानी
    या ग़ुस्से पर आश्रित
    तुम्हारे सामने बिल्कुल नंगा, निर्लज्ज और निराकांक्षी
    मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
    मैं तुम्हारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
    मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
    कम से कम एक आदमी से तो निश्चिंत रह सकते हो
    ______________________________________________
    रघुवीर सहाय पता नहीं क्यों इस कविता को साग्रह सुनते थे, इसलिए उन्हीं की स्मृति को समर्पित।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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