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एक दुर्लभ क्षण

ek durlabh kshan

अनुवाद : विनोद रिंगानिया

हरेकृष्ण डेका

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हरेकृष्ण डेका

एक दुर्लभ क्षण

हरेकृष्ण डेका

और अधिकहरेकृष्ण डेका

    पत्थर से टकराकर मेरी गाड़ी रुक गई।

    मैं नीचे उतरा।

    सामने देखा इंद्रधनुषी आसमान भी उतर आया है

    खेत की गोदी में

    एक निर्मल सुबह का एक स्वच्छ अवगुंठन

    हवा में वनघास लहरा रही है।

    खेत से बच्चों के कच्चे तन की गंध

    नाक से टकरा रही है।

    भिनभिना रही हैं कुछ मधुमक्खियाँ।

    नाच रही हैं सूरज की ओर मुँह करके।

    घूम-घूम कर

    कुछ पल के लिए भूल गया ख़ुद को।

    रुके हुए क्षण में देखा जैसे

    बिना मरण के धब्बों वाले

    कोमल जीवन का चिरस्पंदन।

    गाड़ी के पहिए पर पिला हुआ है चालाक।

    मैं देखता रहा अदूर के पहाड़ों को।

    देखता हूँ गुलमोहर के रंगों से

    पहाड़ों का रंग भी लाल है।

    लेकिन हर चीज़ को पीछे छोड़ समय आगे

    चला द्रुत गति से।

    सुनी चालक की आतंकित चीख़

    “सर, यह भूतों का देश है।

    सुन रहे हैं पहाड़ों पर गुनगुनाहट।

    और वो देखिए आग। पहाड़ों पर

    आग ऊँची उठ रही है।

    देखा गुलमोहर के रंग लाल आग से मिल गए हैं।

    जैसे अब जाकर पहाड़ों की गुनगुनाहट मुझे मैदान में सुनाई दी।

    जैसे अब जाकर कुएँ के मेंढ़कों का

    समस्वर मुझे सुनाई दिया।

    जल्दी से मैं गाड़ी में बैठ गया।

    एक बार गरज कर गाड़ी फिर रुक गई।

    देखा नीचे बह रही एक नदी

    उसके ऊपर का पुल टूट चुका है।

    जैसे अब जाकर देखा आँख वाले अंधे

    आपस में टकराने के बाद मैदानों की ऊँची पास के नीचे

    सो गए हैं।

    उनके मुँह पर भिनभिनाती मधुमक्खियों उड़ रही हैं

    ये मानते नहीं पर जान जाएँगे

    कारण उनकी भी नींद टूटेगी

    जब पीले सरसों के फूलों का रस चूसकर

    मधुमक्खियाँ वापस आएँगी।

    पहाड़ों की आग एक दिन निश्चय ही बुझेगी।

    इंद्रधनुषी आसमान जहाँ चूमता है मैदान को

    तब फिर से खिलेगा जीवन।

    तब वही लोग फिर से बनाएँगे पुल।

    मेरी गाड़ी अब नि:शंक दौड़ रही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कोई दूसरा (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : हरेकृष्ण डेका
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2021

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