एक अज़ाब

ek azab

नवल बिश्नोई

नवल बिश्नोई

एक अज़ाब

नवल बिश्नोई

हर रोज़ इक नया हैवान पनपते देख रहे हैं

हम वेहशतों का घड़ा भरते देख रहे हैं

थोड़े कमज़ोर भी हैं, थोड़ा डरते देख रहे हैं

हम हर दिन मानवता को मरते देख रहे हैं

हम दरिंदे दरख़्तों को जैसे पानी सींच रहे है

हक़ की बातों पर रोज़ पर्दा खींच रहे हैं

पराए दर्द पर आँखें मींच रहे हैं

इन 84 लाख में भला कोई हमसे नीच रहे हैं

दरसल इंसानियत का शदीद इंतिहाँ देख रहे हैं

ईमान का अंत, ज़मीर के मरने की इंतिहा देख रहे

नहीं देखना चाहते पर ज़ुल्म बेइंतिहा देख रहे हैं

हम हर पल इक नया डर करते देख रहे हैं

हम हर दिन मानवता को मरते देख रहे हैं

स्रोत :
  • रचनाकार : नवल बिश्नोई
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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