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दोनों तरफ़

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बोधिसत्व

अन्य

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बोधिसत्व

दोनों तरफ़

बोधिसत्व

और अधिकबोधिसत्व

    नदी पर घिर आए हैं बादल

    वृष्टि हो रही है झिर... झिर

    चमक रही है बिजली।

    वेलूर मठ में

    किसके लिए चल रही है प्रार्थना

    क्यों भर जा रहा है गला

    विवेकानंद का बार-बार

    यह कैसी प्रार्थना है

    रुँधी हुई आरती

    घंटे, घड़ियाल, ढोल... घंटियाँ!

    नदी के ऊपर ख़ूब घिरे हैं बादल।

    उस पार कैसी जल रही हैं बत्तियाँ

    लपट की तरह की उनकी रोशनी में

    कैसे सुलग रही है लोगों की नींद!

    इस पार बहुत प्राचीन ट्राम है

    पुरातन प्रेम की तरह

    चीर्ण पटरियों पर खड़-खड़ चलती

    पुल के सामने एक सुंदरी हाथ जोड़े

    खड़ी है।

    एक आदमी है जो रिक्शे में नधा है

    उसे हाँकने की ज़रूरत नहीं

    हाथ में घंटी लिए, बिना नाल ठुकवाए

    दौड़ता कभी सरपट कभी दुलकी चाल।

    दौड़ते-दौड़ते मुड़कर बताता है

    ‘बनारस का हूँ’

    यही सब हैं उस पार भी

    सभी लुब्ध हैं उस पार पर।

    बिजली की कोंध में

    दिख जाती हैं नदी के तट में

    दुबक कर भीगती हुई काली-काली नावें।

    लगातार रो रहे हैं विवेकानंद

    मरणासन्न रामकृष्ण परमहंस चुप हैं।

    ताकते हैं दूर

    सुलग रहा है दक्षिणेश्वर उस पार

    इस पार सुलग रही है प्रार्थना

    नधा हुआ है आदमी और काल-शय्या पर

    चुप हैं परमहंस।

    इतनी गूँज है कि कुछ सूझ नहीं रहा

    एक बूढ़ी चुप करा रही है

    विवेकानंद को

    ‘नरेन चुप हो जाओ

    चुप हो जाओ नरेन!’

    इसी रात शांत हुए परमहंस

    और विवेकानंद रोते हुए बार-बार

    आते-जाते रहे दक्षिणेश्वर

    बुझाने आग, समझाने लोगों को

    कि बचाओ दक्षिणेश्वर, बचाओ वेलूर

    जो कुछ कहीं भी बच सके बचाओ!

    चलता रहा ऐसे ही रात भर

    नदी पर वृष्टि होती रही,

    पड़ी कुछ बूँदें वेलूर पर,

    कुछ दक्षिणेश्वर पर भी।

    रात भर पड़ी रही

    परमहंस की पार्थिव काया

    और हा... हा करते दौड़ते रहे

    विवेकानंद दोनों तरफ़

    चिथड़े पहनकर

    हाथ में घंटी लिए

    बिना नाल ठुकवाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दुःख-तंत्र (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : बोधिसत्व
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2004

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