दिल्ली की बसों में

dilli ki bason mein

इब्बार रब्बी

इब्बार रब्बी

दिल्ली की बसों में

इब्बार रब्बी

सौर से निकलते ही,

पायदान पर खड़ा हो गया;

दिल्ली की इन बसों में,

मैं बूढ़ा हो गया।

जो मुल्क को खचड़े की तरह

दौड़ा रहे हैं,

उनके पाँव का कूड़ा हो गया।

मैं अधूरा ही था,

कि जीवन पूरा हो गया।

जिनका सीट पर क़ब्ज़ा है

उन्हें खड़े का डर है।

खड़े की बैठे वाले पर नज़र है।

मुझे मेरा बहुवचन कुचलता रहा।

मैं भीड़ से पिचकता रहा

मैं खड़ा-खड़ा स्टॉपों से गुज़रता रहा।

बस में टँगे-टँगे,

दीवार पर हिरन का सिर हो गया।

मैं ऐसा हिलगा कि,

तार पर लटकी पतंग रह गया।

एक टर्मिनल से दूसरे टर्मिनल तक घूमता रहा।

मैं शहर से मुक्त नहीं हो सका,

मैं समय पर व्यक्त नहीं हो सका।

पैंतीस वर्ष तक चलने के बाद

खेतों में नहीं गया।

नहीं गया नदी की तलहटी में,

मैं पहाड़ तक नहीं गया,

नहीं गया हड़ताल में,

समुद्र तक नहीं गया,

नहीं गया चाँदनी में,

गाँव और बस्तियों के वीरान में।

मैंने नहीं देखा एक पायदान,

चढ़ने के लिए ख़ुद बस बनना पड़ता है।

मैंने नहीं देखा आँख की तरह

बस से गिरने के बाद,

आदमी क्या करता है।

मैंने टिकट ले लिया और आँख बंद कर ली।

जब मैंने इस बस में क़दम रखा,

मुझे सड़कों का व्यवहार पसंद नहीं था।

मैं टिकट लेने का अभ्यस्त नहीं था।

मेरी आँख सपना थी,

मेरे पाँव भविष्य थे,

मैं सुनहरा था,

मैं धूप था।

आज काँक्रीट-सा बिठा हूँ,

चलनी की तरह घायल पड़ा हूँ।

यह बस कहाँ से चली थी,

इस बारे में लोग बताते हैं।

कहाँ तक जाएगी यह नहीं मालूम।

मेरी मृत्यु सड़क दुर्घटना में होगी,

या बिस्तर पर;

यह सड़क को मालूम है,

बिस्तर को।

दोनों इंतज़ार करें।

बस में जीवन है

चिंताएँ हैं, वेतन है, कॉलेज है,

बच्चे हैं, भविष्य है।

बस में प्रेमी है, पति है,

आदरणीय है,

अनुकरणीय है।

देखिए सँभालिए स्वयं को,

नीचे दुर्घटना है।

हौरन बजाती,

दुर्घटनाएँ

दौड़ रही हैं।

आप ऊपर ही रहें,

टिकट ज़रूर ले लें।

आपको कहाँ पहुँचना है!

कनॉट प्लेस

या मुर्दाघर

यह निर्णय बस को करना है,

प्रजा की बेबसी को नहीं।

पर,

इसका अर्थ यह नहीं है कि

ख़ामोशी के धैर्य की सीमा नहीं होती!

इसका अर्थ यह नहीं है कि

यात्राएँ पूरी नहीं होतीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 50)
  • रचनाकार : इब्बार रब्बी
  • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
  • संस्करण : 2012

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