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धूप-धर्म

dhoop dharm

कुमार विकल

अन्य

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कुमार विकल

धूप-धर्म

कुमार विकल

और अधिककुमार विकल

    आजकल मेरे लिए

    शाम की धूप

    इस तरह खड़ी रहती है

    जैसे कोई बीमार बच्ची

    जीवन-रक्षक दवाइयों की इंतज़ार में हो।

    धूप

    जिसने पचास बरस पहले मेरे पाँव चूमे थे

    और निरंतर अब भी चूमती रही है।

    लोगों के लिए पचास बरस

    एक लंबा अरसा होगा

    लेकिन मेरे लिए तो कल की बात है।

    यह धूप मेरे साथ वजीराबाद में थी

    रावलपिंडी, लुधियाना, जालंधर, दिल्ली

    और फिर चंडीगढ़!

    यह धूप अब भी बहुत खिलंदड़ी है

    जबकि वह इस शताब्दी की तरह ढल रही है

    और लगातार प्रश्न करती रहती है।

    उसकी प्रश्न-भरी चिंता है—

    'एक काला सूरज बनने से पहले

    वह अपनी आख़िरी किरण

    कहाँ पर बिताएगी

    या ख़ुद ही एक नया सूरज बन जाएगी

    या किसी और ब्रह्माँड में चली जाएगी'

    लेकिन इस धूप को कौन समझाए—

    वह एक ऐसे सौर परिवार में रहती है

    जहाँ एक किरण के सो जाने का अर्थ

    काला सूरज बनना नहीं होता

    धूप का ढलना तो उसका धर्म है

    और अनंत किरणों को जन्म देना

    सूरज का कर्म है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संपूर्ण कविताएँ (पृष्ठ 233)
    • रचनाकार : कुमार विकल
    • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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