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धूल की जगह

dhool ki jagah

महेश वर्मा

अन्य

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महेश वर्मा

धूल की जगह

महेश वर्मा

और अधिकमहेश वर्मा

    किसी चीज़ को रखने की जगह बनाते ही धूल

    की जगह भी बन जाती, शयन कक्ष का पलंग

    लगते ही उसके नीचे सोने लगी थी मृत्यु की

    बिल्ली, हम आदतें थे एक दूसरे की और वस्तुएँ

    थे वस्तुओं के साथ अपने रिश्ते में।

    कितना भयावह है सोचना कि एक वाक्य

    अपने सरलतम रूप में भी कभी समझा नहीं

    जा पाएगा पूर्णता में, हम अजनबी थे अपनी

    भाषा में, अपने गूँगेपन में रुँधे गले का रूपक

    यह संसार।

    कुछ आहटें बाहर की कुछ यातना के चित्र ठंड में

    पहनने के ढेर सारे कोट और कई जोड़े जूते हमारे

    पुरानेपन के गवाह जहाँ मालूम था कि धूप

    आने पर क्या फैलाना है, क्या समेट लेना है

    बारिश में।

    कोई गीत था तो यहीं था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : धूल की जगह (पृष्ठ 18)
    • रचनाकार : महेश वर्मा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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