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धान-सा झरता जीवन

dhaan sa jharta jivan

प्रेमा झा

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प्रेमा झा

धान-सा झरता जीवन

प्रेमा झा

और अधिकप्रेमा झा

    ज़िंदगी जैसे शीत भूलती गई हो

    चट्टान गर्म-सा उखड़ता हुआ दिन

    तभी एक ठंडी हवा का झोंका

    बिसरा हुआ रास्ता-सा

    आता है और हौले से जाड़े के माह

    वाले पन्ने को कैलेंडर पर पलट देता है

    धीरे से शाम घिर रही है

    लालटेन, रजाई और कविता तीनों मुझे घेर लेते हैं।

    कमरे की बत्ती बुझा दी है मैंने

    चाँद वाली खिड़की खोल दी है

    आज सायरन बजेगी संध्या सुंदरी की

    कवि सब मदहोश होंगे

    आज दिन को मैंने गली से भोंपू वाले को गुजरते भी सुना था

    वो शरद की बोहनी कर रहा था

    वो चादर, सूट और शाल वाला भी कहीं दूर कश्मीर से आया था

    लालटेन के शीशे में अब भी मैं स्कूल देख लेती हूँ

    पन्ने पर लिखकर ख़्वाहिशें अब भी राख़ बनाकर

    मिट्टी में घिस देने वाला टोटका करती हूँ!

    ये जूही के फूल वाला गाछ मेरे सब सपनों के राज जानता है

    मैं अँधेरी रात खलिहानों और नदियों से गुजरना चाह रही हूँ

    मुझे नदी में तैरते चाँद और तारों की परछाईं सबसे अधिक आकर्षित करती है

    मै खेतों से गुजरती हुई किसी डरावनें जिन्न से मिलना चाहती हूँ।

    मैं एक सुंदर दुनिया के सब भूगोल पढ़ना चाह रही हूँ।

    मुझे जीनी है ये पीछे छूटी हुई दुनिया फिर से!

    मैं ठिठुरन महसूस करना चाहती हूँ ताकि

    अलाव का इंतज़ार और भी रोमांचक हो सके

    मैं थोड़े कम में, थोड़े-से-थोड़े में जीवन गुजार देना चाहती हूँ

    क्योंकि जीवन अपने पुराने टूटे हुए कोठियों के धान-सा झरता हुआ होता है

    जहाँ भूख के लिए रोटी

    और सोने के लिए गर्मी की कोशिशें ही जीवन को सुंदर बनाते हैं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमा झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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