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देवी

dewi

प्रवासिनी महाकुड़

अन्य

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और अधिकप्रवासिनी महाकुड़

    मुझे देवी मत कहो

    साल भर में एक बार मत पुकारो मुझे

    ऐसे ज़िंदा रहती नारी, नारी के नाम की

    रंगीन अभिलाषा में, आसक्ति के अंतरंग स्पर्श से

    मैं हमेशा विराजमान

    किसने बनाया था यह सिंहासन?

    इतना बड़ा साम्राज्य

    जहाँ तक मेरी आँखें नहीं पहुँचती

    वह भी ख़ास मेरे लिए?

    सिर्फ़ संबोधन से ही कोई नहीं बन जाती देवी

    नारी रहती है हमेशा ही नारी

    ख़ुद सृष्टि और ख़ुद ही स्रष्टा

    आवेग मेरा अनाहत रहे

    और भी रहें सारी कामनाएँ

    सपनों के सहारे देवी नहीं पाती

    जी नहीं पाती

    ज़िंदगी के रंगीन खेल में

    नहीं रह पाती मगन

    समग्र काल से परे है देवी का परिचय

    रूपकथाओं के काव्य-कविताओं में

    रहस्यभरी, मधुमयी भूमिकाओं में

    देवी बनकर फूलों का नैवेद्य नहीं चाहिए

    मुझे अपने चरणों पर

    इन्हीं हाथों से दे दो

    इसी नातिदीर्घ केशराशि में भर दो

    अनुराग की नीली अपराजिता, श्वेतपद्म, लोहित मंदार

    बढ़ाओ सोमरस, जायफल की ख़ुशबू से

    महकते डाब का पानी काँसे के बर्तन में

    दे सको तो दो एक प्याली चाय

    मेरा विसर्जन ना करो सात ताल पानी में

    तुम्हारे शहर में रहने का शौक़ मुझे नहीं है

    भक्ति गदगद तुम्हारे चेहरे को देखने की चाह नहीं

    देवी बनने की ख़्वाहिश कभी थी ही नहीं

    देवी बनने से देह के बंधन से मुक्ति मिलती है

    पर यह कैसा विरोधाभास

    मैं वही अश्रुवर्णा नारी

    प्यास और देह की गरमी जिसकी

    बाक़ी इच्छाओं की तरह

    संतुलित और बहुत ही स्वाभाविक।

    मेरे प्यार में अगर है तुम्हारा पुनर्जन्म

    देवी संबोधन कर मत माँगो मोक्ष

    परमप्रिय बन जाओगे मुझे प्यार करके कैसे

    उपाय उसका बताऊँ?

    देवी नहीं

    नारी कहो

    मत रखो बाँधकर कविताओं में

    या सजाकर मंडप में

    जैसी चाही थी ज़िंदगी, आज वहीं पहुँचकर

    माँग लिया है मैंने ख़ुद को ख़ुद से भोग के लिए

    वे सारे के सारे स्पर्श-कातर

    तुरीय मुहूर्त

    अभी मौजूद यहीं पर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 50)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ दीप्ति प्रकाश एवं प्रभात त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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