विस्थापन

visthapan

नीरज नीर

नीरज नीर

विस्थापन

नीरज नीर

रातें उदास और ठहरी हुई हैं

विषण्ण सुबह

सूरज उगता है

आधा डूबा हुआ

हवाएँ शोक ग्रस्त हैं

बलदेव बेसरा की थकी हुई आँखों में

छाया है अँधेरा

दैत्याकार चिमनियों से निकलता

विषैला काला धुआँ

जहर बनकर घुस रहा है

नथुनों में

पत्तियों पर फैली है

काली धूल

वृक्ष हाँफ रहे हैं

वह भर देना चाहता है

उस बरगद के पेड़ में

अपनी साँसे

जिसे लगाया था

उसके पुरखों में से किसी एक ने

पर वह ख़ुद बेदम है

धान के खेतों में

पसरी हुई है

कोयले की छाई

दावा है चारों तरफ़

बिजली की चमकदार रौशनी

फैलाने का

लग रहा है बिजली घर

पर उसके जीवन में फैल रहा है अँधेरा

बरगद की जड़े ताक़ रही हैं

आसमान को

पंछी उड़ चुके हैं

किसी दूर देश को

नए ठौर की तलाश में

पर तालाब की मछलियाँ

नहीं ले पा रही हैं साँसे

वे मर कर उपला गई है

पानी की सतह पर

वह भी चाहता है

पंछियों की तरह चले जाना

लाल माटी से कहीं दूर

जहाँ वह ले सके

छाती भर कर साँस,

जहाँ गीत गाते हुए

उसकी औरतें रोप सके धान,

जहाँ मेड़ों पर घूमते हुए

रोप सके

अपनी आत्मा में

हरियाली की जड़ें

पर मछलियों के पंख नहीं होते

वह साँस भी नहीं ले पा रहा

उसकी आत्मा छटपटा रही है

वह भी तालाब की मछलियों की तरह

मरकर उपला जाएगा

और विस्मृत हो जाएगा

अस्तित्वहीन होकर

मछलियाँ पानी के बाहर

पलायन नहीं कर सकती हैं

अँधेरे में जूझती मछलियों का अंत

निश्चित है

स्रोत :
  • रचनाकार : नीरज नीर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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