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सिसकियाँ

siskiyan

सारिका सिंह

अन्य

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सारिका सिंह

सिसकियाँ

सारिका सिंह

और अधिकसारिका सिंह

    ओढ़ कर आबरू

    की रंगीन चुनर

    छिपाए अपना

    फीका अल्हड्डपन

    किसी बिन घुँघरू

    की पाज़ेब-सी

    वो हर पहर की

    बेजान सिसकियाँ।

    जान होती तो

    क्या सुनाई नहीं देती?

    किसी आते जाते को

    क्या दिखाई नहीं देती?

    वो दिन रात

    दीवारों में क़ैद,

    खिड़कियों से झाँकती

    धीमी-धीमी सिसकियाँ।

    चाँदनी को है

    शायद मालूम

    के रात के अँधेरे में

    देखा है उसने,

    कई बार खुलते

    किसी खूटें से,

    नज़रे चुराते

    जीने को वो

    बेताब सिसकियाँ।

    चूल्हे पर कभी,

    कभी रसोई की

    कच्ची ज़मीं पर,

    झूलती खेलती

    फिर घूमती ताक़ती

    की आए कोई

    और पूछे

    क्यों हैं बेनाम

    और अंजान

    ये तेरी सिसकियाँ?

    सतरंगी इंद्रधनुष

    पहचानता है,

    बारिश में कई बार

    पाया है उसने

    बूँदों संग घुलते

    अश्कों को

    घेरा है उसने ,

    के शायद कोई

    रंग तो भर जाए,

    खिल जाए थोड़ी

    बेरंग सिसकियाँ

    गहरे कुएँ में

    गूँजती आवाज़

    कई बरसों की,

    पहुँची नहीं जैसे

    कराहट किसी

    बूढ़ी की, कानों तक

    वैसे ही सदियों से

    तरसती रहीं

    बरसती रही

    ठहर जाने को

    हर रात सिसकियाँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सारिका सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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