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भीतर के अँधियार से लड़ें

bhitar ke andhiyar se laDen

अलका सिन्हा

अन्य

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अलका सिन्हा

भीतर के अँधियार से लड़ें

अलका सिन्हा

और अधिकअलका सिन्हा

    आँखों पर बाँधकर पट्टी

    खेलना आँख-मिचौनी का खेल

    ख़ूब भाता था मुझे

    मैं तब सोचा करती कि क्या ही मज़ा आता

    कि ज़िंदगी एक-दूसरे से छुपते-ढूँढ़ते बीत जाती।

    मगर जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगी

    मैं अँधेरों से डरने लगी।

    रातों को बड़े चाव से सुना करती थी

    बोतल वाले जिन्न और भूतों की कहानियाँ

    मगर अब हिलते साए को देखकर भी

    रूह काँप उठती है।

    एकाँत हमेशा बड़ा निजी हुआ करता था

    उसे जीती थी मैं बेरोक-टोक

    बिलकुल अपनी तरह से

    पर पता नहीं

    वक्त कब और कैसे इतना बदला

    कि एकाँत पर अकेलापन हावी हो गया।

    अब सुनसान अकेले में

    कहीं जाने से मन डरता है।

    उम्र चाहे बचपन की हो या पचपन की

    ख़ौफ़ का साया मंडराता रहता है जहन में

    डरने लगी हूँ अँधेरों से

    निर्जन एकांत से।

    तो क्या इस डर से मैं रोक दूँ प्यारी बच्चियों को

    अपनी ज़िंदगी जीने से?

    पाबंदियां लगा दूँ, खुल कर हँसने पर?

    चिड़ियों-सा चहकने पर?

    झरनों-सा बहने पर?

    महदूद कर दूँ उनकी परवाज़

    घर की चारदीवारी में?

    घोंट दूँ उनकी आवाज़

    भीतरी तहख़ानों में?

    जीते जी मार दूँ

    उनके भीतर की निर्भया?

    तोड़ दूँ उनकी अदम्य जिजीविषा?

    असंभव को संभव करने का शानदार सपना?

    और क्या डर से दुबक रहना ही है सुरक्षा?

    जुबान पर ताले

    और आँखों पर पट्टी ही है

    हिफ़ाज़त की परिभाषा?

    अब वक्त है कि हम

    कलम से छेनी का काम लें

    धारदार, नए शब्द गढ़ें

    बदलते वक्त के साथ

    कदमताल करती परिभाषाएँ रचें।

    हिफ़ाज़त और सुरक्षा की आड़ में

    दुबकने के बदले

    हाथों में मशालें लिए आगे बढ़ें

    घरों से बाहर निकलें

    दूर तक, देर तक गहन अँधकार में चलें।

    आओ हम डर की छाती पर रख दें

    आत्मविश्वास के जगमगाते दिए...

    आओ हम भीतर के अँधियार से लड़ें!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अलका सिन्हा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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