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अनु-जों से

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बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

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    1

    सचमुच, मैं जी रहा अँधेरे ज़मानों में!

    निष्कपट शब्द है विदूषकता। चिकना ललाट

    जताता है निष्ठुरता। हँस रहा जो उसको

    बस मिली नहीं है अभी

    ख़बर है ख़ौफ़नाक।

    कैसा ज़माना है ये—कि जब

    पेड़ों के बारे में बातचीत गोया गुनाह है

    क्योंकि निहित होती है उसमें ख़ामोशी बहुत से कुकृत्यों पर?

    वह जो शांत मन से सड़क पार कर रहा

    मानो जा चुका है उन मित्रों की पहुँच से परे

    जो कि हैं गाढ़े में?

    यह सच है मैं अभी भी अपनी रोज़ी कमाता हूँ

    लेकिन। विश्वास करो, यह बस संयोग है। कुछ नहीं ऐसा

    जो करूँ और मुझको हक़ पहुँचे भरपेट खाने का।

    भाग्य से बचा हूँ मैं। (यदि मेरा भाग्य थमा, मैं गया।)

    मुझसे कहा जाता है: खा और पी। मौज कर कि है तेरे पास !

    पर कैसे खाऊँ और पियूँ अगर खाता जो छीन रहा उस भूखे से

    और मेरा ग्लास नहीं होगा उस प्यास से मरते के पास?

    फिर भी मैं खाता और पीता हूँ।

    मैं भी हुआ चाहूँगा सयाना।

    ग्रंथ बतलाते हैं क्या है सयानापन :

    दुनिया की झिकझिक से बचना और बिता लेना

    बेधड़क अपना लघु आयुमान

    बल के प्रयोग के बिना निभा लेना भी

    बुरे के एवज़ में नेकी चुकाना

    निज वासनाओं की तृप्ति नहीं विस्मरण

    बतलाया गया है सयाना।

    यह सब मैं कर नहीं सकता :

    सचमुच, मैं जी रहा अँधेरे ज़मानों में।

    2

    मैं नगरों में पहुँचा दौर-ए-तबाही में

    भूख का वहाँ था साम्राज्य।

    लोगों के बीच गया दौर-ए-बग़ावत में

    और मैं उठा उनके साथ।

    इस तरह बीता समय मेरा

    मिला था जो मुझे धराधाम पर।

    खाना मैं खाता था जंगों के दरमियान

    सोने को जा लेटा बधिकों के संग।

    प्यार में जुटा रहा बेपरवा

    प्रकृति को निहारा बिना सब्र के।

    इस तरह बीता समय मेरा

    मिला था जो मुझे धराधाम पर।

    मेरे ज़माने में सब राहें जाती थीं दलदल में।

    जीभ ने दगा देकर सौंपा क़स्साबों को।

    क्या था जो कर लेता। लेकिन हुक्मरान

    ज़्यादा सुरक्षित थे मेरे बग़ैर : बस यही मुझको उम्मीद थी।

    इस तरह बीता समय मेरा

    मिला था जो मुझे धराधाम पर।

    शाक्तियाँ क्षीण थीं। ध्येय

    बहुत दूर

    साफ़ नज़र आता था हालाँकि मेरे लिए

    था वह दुर्गम्य।

    इस तरह बीता समय मेरा

    मिला था जो मुझे धराधाम पर।

    3

    तुम जो होगे उत्तीर्ण उस प्रलय से

    जिसमें हम हो गए लय

    स्मरण करना—

    जब तुम गिनाओ हमारी विफलताएँ—

    उस अँधियारे युग को भी

    जिससे तुम बचे रहे।

    दर-ब-दर चले हैं हम, जूतों से ज़्यादा मुमालिक को छोड़ते,

    धँसे वर्ग-युद्धों में; होते हताश

    हुआ जब केवल अन्याय, और कोई विद्रोह नहीं

    फिर भी पता है हमें :

    घृणा, अधमता तक से,

    मुँह बिगाड़ देती है

    क्रोध, अन्याय के ख़िलाफ़ हो तब भी,

    कर्कश बना देती है वाणी को! हाय रे, हम

    जो बनाया चाहते थे आधार मित्रता का

    ख़ुद ही नहीं हो पाए मित्रवत्।

    लेकिन तुम, जब वह समय आए अन्ततः

    और हो मनुष्य मनुष्य का सहाय

    स्मरण करना हमें

    सदय-हृदयता से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व सूक्ति कोश- खंड 2 (पृष्ठ 115)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक रायनर लोत्स, गिरधर राठी
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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