देखें तो दाँत हैं अवशेष बाहर भीतर के। ज़िंदगी में उनकी भय यह व्याप्त है
कि फिर से वे पा सकते हैं अपने को बाहर और खो जा सकते हैं। जानता नहीं है
एक खोया हुआ दाँत कि वह मुड़े तो किस ओर, जानता नहीं है कि हँसी में वह
तोड़ लिया जाता है या होता है उजागर, जानता नहीं है कि किस तरह पहुँचे फिर
अपनी जड़ तक वह और इस तरह देता है खो अपनी पीड़ा को।
विकास में सभ्यता के जाने कितने दाँत हैं खो गए। या तो किसी शैक्षिक या
सुधारवादी हस्तक्षेप के कारण जीवन में युवा व्यक्तियों के या फिर क्षय से बुढ़ापे में।
तोड़ दिए गए दाँत सभ्यता या संस्कृति के विकास में गलते नहीं हैं बल्कि रास्ता
बनाते हैं अँधेरे में, डर उन्हें लगता है उजाले में आने से। अपने सफ़र में थक चुके हैं
दाँत जो लिए जाते हैं खोज, इस तरह कारण वे बनते हैं नई वैज्ञानिक पद्धतियों के
उभरने का। बने हुए दाँत होते हैं एकत्र बादलों से भरी हुई अँधेरी शामों में, भय से
काँपते हुए कहते हैं आपस में कथाएँ वे मसूढ़ों और मुक्कों और घुटने तक जूतों
की और उन चिकित्सा-उपकरणों की जाँच जो करते हैं मुँह की। कथाएँ ये रहित
नहीं होतीं एक हास्य से अनजाने ही कर जाता उनमें प्रवेश वह। दाँत बन जाते हैं
पात्र हँसी के और कहते हैं कथाएँ वे अपनी रात-दर-रात, सदी-दर-सदी।
इसी तरह शुरू हुआ कठपुतली थिएटर।
थिएटर है यह उन दाँतों का बचे नहीं रहे जिनके लिए कोई मुँह।
इसीलिए, प्यारे बच्चो, बंद करो अपना मुँह और ध्यान से देखो।
- पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 120)
- संपादक : अशोक वाजपेयी
- रचनाकार : मिरोस्लाव होलुब
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्करण : 1989
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