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माधव की गाय

madhaw ki gay

जितेंद्र रामप्रकाश

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और अधिकजितेंद्र रामप्रकाश

    भीतर माधव विराजे हैं

    अब अकेले में भी

    वैसे ही

    बाहर उनकी गाय।

    घास खाती है

    प्रांगण के उस छोर, सीढ़ियाँ चढ़

    भीतर आई, टूटे द्वार से।

    ईंटों के ढेर में उग आई जाने कब

    यह घास। शायद किसी ने देखी भी हो

    अब यह गाय ख़त्म कर देगी

    तुरंत, पलक झपकते

    पास ही तेरहवीं शताब्दी का ह्यग्रीव अवतार

    नख दंत निपोरे आक्रामक घूरता है

    एकटक

    सोलहवीं शताब्दी में गिरा भूकंप में मंदिर की

    छत से। रख दिया गया है यहाँ प्रांगण के द्वार पर

    कुछ देर बाद तीन बकरियाँ आएँगी और निश्चिंत

    इसके चौड़े सर पर बैठी रहेंगी

    —स्कूल के बच्चे, दिन भर यहाँ ऊधम करते रहे

    इधर-उधर। अब जा चुके

    लाल टोपी वाली लड़की तस्वीरें खींच सारी

    जा चुकी। एकाध रहीं बस, उसने सोचा

    जा चुकी

    झमाझम बारिश में सारे भक्त जो लौटे

    थे भागते हुए माधव की शरण में

    जा चुके कब के।

    नव दंपत्ति, मेड़ पर सिर भिड़ाती बकरियों-सा

    जा चुका

    पूजा के बड़े बर्तन रगड़ता

    पुजारी का बेटा, कोई फ़िल्मी गाना

    गुनगुनाता है।

    साँझ उतर आई है, इस पहाड़ी

    पर। नीचे झींगुरों से बजती घाटी में कुछ

    और आवाज़ें भी हैं

    यह गाय चरती हुई चली जाएगी।

    बकरियाँ भी। जूठे बर्तनों से छूटी

    राख भी

    पास वाले गुंबद से दो प्रतिमाएँ हिलेंगी

    दिन भर तलवार थामे, किरीट साजे

    खड़ी रहीं नग्न। आमने-सामने

    विदेशी राजकुमारों से मिलती है उनकी शक्ल, वे

    मानो पिरामिड के बीच धँसी

    क़बीले के प्रतापी राजकुमार

    या शायद उनको इष्ट देवों की प्रतिमाएँ

    ये। हिलेंगी थोड़ा

    दिन भर खड़ी रहीं

    शायद तुम्हारी अँधेरी गुफा में मिलने

    तुम्हें कुछ पल आएँ।

    तुम वहीं रहोगे

    गाय चर कर लौट गई है माधव

    घाटी में बाग़ी भी कुछ घिरते होंगे किसी घर में

    दिन भर इन मूर्तियों के गुंबद

    के नीचे सीढ़ियों पर बैठा रहा

    देखता

    अब इस गिरे हुए प्राचीन अवतार-सा

    साँझ से घिर जाऊँ।

    या फिर चुपचाप उठकर लो

    मैं जाता हूँ

    ख़ाली करता यह प्रांगण

    माधव चली गई है तुम्हारी गाय

    स्रोत :
    • पुस्तक : साक्षात्कार 196 (पृष्ठ 39)
    • संपादक : ध्रुव शुक्ल
    • रचनाकार : जितेंद्र रामप्रकाश
    • संस्करण : 1996

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