Font by Mehr Nastaliq Web

हेमंती दिन

hemanti din

अलेक्सांद्र ब्लोक

अन्य

अन्य

अलेक्सांद्र ब्लोक

हेमंती दिन

अलेक्सांद्र ब्लोक

और अधिकअलेक्सांद्र ब्लोक

    कटे खेत में चले जा रहे हैं हम धीरे

    तुम हो मेरे साथ, प्रिये भोली-भाली

    और हृदय मेरा यों हलका हो आया है

    मानो मैं हूँ किसी विजन-से गिरजाघर में।

    कितना निर्मल, निःस्वन है यह हेमंती दिन

    सिर्फ़ सुनाई पड़ता है उस कौए का रव

    जो भर्राए स्वर में टेर रहा औरों को,

    या कि दूर पर किसी एक बुढ़िया की खाँसी।

    मँडलाता है धुआँ झुका अपनी बखार पर

    हम दोनों चुपचाप भीत से पीठ लगाए

    बैठे-बैठे देख रहे हैं अपलक नभ में

    दूर उड़े जाते सारस वे पंख पसारे।

    त्रिभुजाकार, उड़ रहे हैं वे आसमान में

    उनका नेता क्रंदन करता है विषाद से

    क्यों, आख़िर किसलिए टेरता है वह ऐसे?

    क्या रहस्य है इस हेमंती विकल चीख़ का?

    गिनना दूर, दृष्टि में भरना भी दूभर है

    नन्हें-नन्हें दीन-हीन बिखरे गाँवों को

    और दूर बाँगर में कोई आग जल रही

    छाई है इस कजलाते हेमंती दिन पर।

    रे निर्धनता के मारे देश हमारे!

    क्या है तुझमें जिसपर मैं यों न्यौछावर हूँ?

    मेरी संगिनी! निरीह प्रिया मेरी!

    किस दु:ख में यों फूट-फूटकर रोती है तू?

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 34)
    • संपादक : नामवर सिंह
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र ब्लोक
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1978

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए