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बादल

badal

अलेक्सांद्र पूश्किन

अन्य

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और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    अंतिम बादल झंझा के, टूट चुका है जिसका बल,

    घुले हुए नीले अंबर पर घूम रहें क्यों तुम केवल,

    क्यों विषाद की छाया बनकर अब भी हो तुम अड़े हुए,

    क्यों दिन के ज्योतिर्मय आनन पर कलंक बन पड़े हुए?

    प्रलय मचा रखी थी तुमने अभी-अभी गगनांगन में,

    भयप्रद विद्युत माला तुमने लिपटा रक्खी थी तन में,

    दिग्दिगंत प्रतिध्वनित वज्र का व्यग्रगान तुम गाते थे,

    ग्रीष्म प्रतापित पृथ्वी तल पर झर-झर जल बरसाते थे।

    अलम् और अलविदा तुम्हें, अब नहीं तुम्हारे बल का काम,

    बरस चुका जल, सरस धरातल शीतल करता है विश्राम,

    और समीरण जो चलता है सहलाता तरुवर के पात,

    तुम्हें उड़ाकर ले जाएगा नभ से, जो अब निर्मल-शांत।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 57)
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1964

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