शाम, रात, सुबह, और दोपहर
हर समय देता हूँ धन्यवाद
कि मरा नहीं मैं बीते कल।
गोली मुझे आकर नहीं मोमबत्ती को लगी है।
कृतज्ञ हूँ मैं ऐसी रस्म की पवित्रता का।
बग़ल में ही छिपे दुश्मन की प्रतीक्षा
भाई की प्रतीक्षा से अधिक लंबी होती है।
कृतज्ञ हूँ मरा नहीं मैं बीते कल।
कृतज्ञ हूँ कि मरा नहीं मैं बीते कल
अन्यथा मेरा छोटा-सा घर छोटा-सा आँगन
और सुबह-सुबह खिल उठती झाड़ियाँ
चीज़ें हो जाती अतीत की।
कभी भी तुम आ नहीं पाती मेरे जीवन में
अपनी पाप भरी ताक़त के साथ।
धुल गए हों जैसे समस्त पाप
तुमने निर्मल हृदय से जलाई मोमबत्तियाँ।
पर अंधविश्वास नहीं तो क्या था यह!
कितनी ताज़ा होती हो तुम सुबह-सुबह
बिना यह जाने ही कोई मर्द जगाने लगे तुम्हें,
अपनी समझ से परे है यह बात
पर कृतज्ञ हूँ मैं कि मरा नहीं मैं बीते कल।
हारने पर स्याह पड़ जाता है आहत चेहरा,
बिना बड़बड़ाए मान लेनी चाहिए सज़ा,
ब्रुवेल की तरह शून्य से आरंभ कर देनी चाहिए ज़िंदगी,
कृतज्ञ हूँ मैं कि मरा नहीं मैं बीते कल।
यदि ग़लतियाँ हमसे न हो
ज़िंदगी तो रिश्ते से बहन लगती है।
ज़िंदगी होती है प्रेयसी
इसलिए कृतज्ञ हूँ कि मरा नहीं मैं बीते कल।
दुश्मनी नहीं बल्कि ये तिलस्म है सच्चाई
संभव है कल कहे कोई मुझसे :
हो चुकी है पूरी ज़िंदगी तुम्हारी।
गोया अपनी क़लम की मुस्कान से
निश्चित खरोंचूगा ये शब्द :
कृतज्ञ हूँ कि मरा नहीं मैं बीते कल।
- पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 329)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : अंद्रेई वोज़्नेसेंस्की
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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