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बुद्धि

buddhi

अलेक्सांद्र पूश्किन

अन्य

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और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    मुझसे मेरी बुद्धि छीनो, विनती करता हूँ, भगवान,

    जी सकता श्रम सहकर, भूखा रहकर, लेकर भिक्षा-दान,

    बुद्धि बिना पर कब कल्याण?

    मेरी बुद्धि नहीं, गो, ऐसी जिसपर हो मुझको अभिमान,

    कोई मान सके तो होगा इससे मुझको हर्ष महान,

    यदि मैं इससे पाऊँ त्राण।

    दुनिया अपने प्रतिबधों से यदि कर दे मुझको आज़ाद,

    करने दे मुझको जो चाहूँ तो भर अंतर में आह्लाद,

    मैं भागूँगा वन की ओर।

    और वहाँ डालूँगा अपने सपनों का तूफ़ानी दोल,

    और अग्नि गीतों को गाता अपने कंठ अकुंठित खोल,

    हो जाऊँगा आत्म-विभोर।

    वहाँ बैठकर सुना करूँगा निर्मल झरनों का गाना,

    हर्ष-प्रफुल्लित, पुलकित मन से जब चाहूँगा मनमाना,

    ताकूँगा नव नील गगन।

    लेंगी होड़ प्रबल झंझा में तब मेरी साँसें स्वच्छंद,

    जो हरहर मरमर कर बहती हैं मैदानों पर निर्द्वंद्व,

    और झुमा देती कानन।

    बुद्धि विकृति यदि हो जाए तो, यह दुनिया है ऐसी क्रूर,

    तुमको रक्खेगी अपने से संक्रामक रोगी-सा दूर,

    तुमको जकड़ेंगे बंधन।

    दुनिया वाले जंज़ीरों से हाथ-पाँव दोनों कसकर,

    ठेल तुम्हें देंगे ले जाकर पागलख़ाने के अंदर,

    पशुओं-सा होगा जीवन।

    पागल साथी वहाँ रहेंगे करते हरदम चीख़-पुकार,

    और सुनाई देगी रातों को रखवारों की फटकार,

    और बेड़ियों की झन-झन।

    कभी नहीं फिर सुन पाओगे तुम बुलबुल का मंजुल राग

    जिससे रजनी की छाया में गुंजित होता हर वन-बाग़,

    वन्य विहगों का गायन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 67)
    • रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1964

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