भटका मेघ

bhatka megh

श्रीकांत वर्मा

श्रीकांत वर्मा

भटका मेघ

श्रीकांत वर्मा

भटक गया हूँ—

मैं आसाढ़ का पहला बादल!

श्वेत फूल-सी अलका की

मैं पंखुरियाँ तक छू सका हूँ।

किसी शाप से शप्त हुआ

दिग्भ्रमित हुआ हूँ।

शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।

कालिदास! मैं भटक रहा हूँ,

मोती के कमलों पर बैठी

अलका का पथ भूल गया हूँ।

मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गए हैं।

मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा

अब तक कड़क रहा है।

आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।

लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।

मुझे मालवा के कछार से

साथ उड़ाती हुई हवाएँ

कहाँ जाने छोड़ गई हैं!

अगर कहीं अलका बादल बन सकती

मैं अलका बन सकता!

मुझे मालवा के कछार से

साथ उड़ाती हुई हवाएँ

उज्जयिनी में पल भर जैसे

ठिठक गई थीं, ठहर गई थीं,

क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू

सिहर गई थीं।

मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाए थे।

मध्य मालवा, मध्य देश में

कितने खेत पड़े पाए थे।

कितने हलों, नागरों की तब

नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।

कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।

तालपत्र-सी धरती,

सूखी, दरकी, कब से फटी हुई थी।

माँएँ मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,

बीज मुझे ललकार रहे थे,

ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।

मैंने शैशव की

निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।

मुझे याद आया,

मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।

अब धरती से दूर हुआ

मैं आसमान का धब्बा-भर था।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!

तब से अब तक भटक रहा हूँ।

अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,

अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,

अब तक उजड़ी है खपरैलें,

अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।

मैली मैली संध्या में

झरते पलाश के पत्तों-से

धरती के सपने उजड़ रहे हैं।

मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।

कितने आँसू टप, टप, टप

मेरी छाती पर टपक रहे हैं।

कितने उलाहने मन में मेरे

बिजली बन लपक रहे हैं।

अंदर-ही-अंदर मैं

कब से फफक रहा हूँ।

मेरे मन में आग लगी है

भभक रहा हूँ।

मैं सदियों के अंतराल में

वाष्प चक्र-सा घूम रहा हूँ।

बार-बार सूखी धरती का

रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।

प्यास मिटा पाया कब इसकी

घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।

जिस पृथ्वी से जन्मा

उसे भुला दूँ

यह कैसे संभव है?

पानी की जड़ है पृथ्वी में

बादल तो केवल पल्लव है।

मुझमें अंतर्द्वंद्व छिड़ा है।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!

तुमने जो दिखलाया मैंने

उससे कुछ ज़्यादा देखा है।

मैंने सदियों को मनुष्य की आँखों में धुलते देखा है।

मेरा मन भर आया है कवि,

अब रुकूँगा।

अलका भूल चुकी मैं अब तो

इस धरती की प्यास हरूँगा।

सूखे पेड़ों, पौधों, अँकुओं की अब मौन पुकार सुनूँगा।

सुखी रहे तेरी अलका मैं

यही झरूँगा।

अगर मृत्यु भी मिली

मुझे तो

यही मरूँगा।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!

मैं अब अलका जा सकूँगा।

मुझे समय ने याद किया है

मैं ख़ुद को बहला सकूँगा।

जब अँकुआए धान,

किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।

मैं हूँ नहीं कृतघ्न मुझे तुम शाप देना!

मैं आसाढ़ का पहला बादल

शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूँ।

बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 13)
  • रचनाकार : श्रीकांत वर्मा
  • प्रकाशन : राजकमल प्रपरबैक्स
  • संस्करण : 1992

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