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बनारस

banaras

सत्येंद्र कुमार

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अन्य

और अधिकसत्येंद्र कुमार

     

    एक

    बनारस के लिए अच्छा नहीं है
    कबीर का इस तरह
    छोड़कर चले जाना बनारस को
    मगहर में कबीर मरने जाते हैं
    ‘मगहर’ ज़िंदा हो जाता है कबीर से
    लेकिन बनारस?
    कबीर का लौटना ज़रूरी है बनारस के लिए?

    दो

    मस्जिदों से अज़ान 
    और मंदिरों से घंटियों की आवाज़ें
    तेज़ हो रही हैं बनारस में
    जब-जब कबीर दूर हटते हैं बनारस से
    तब-तब मरने लगता है बनारस 

    तीन

    अगर बचे रहे कबीर 
    तो बचा रहेगा बनारस 
    फिर तो आप निश्चिंत होकर
    लगा सकते हैं डुबकी गंगा में
    इत्मीनान से किसी गली 
    किसी चौराहे पर खड़े होकर
    सुन सकते हैं
    ‘बिस्मिल्ला ख़ाँ’ की शहनाई
    ‘किशन महाराज’ का तबला 
    ऐसे ही एक शहर 
    बसता है हमारे भीतर

    चार

    जुलाहे बुन रहे हैं कपड़े 
    रँग रहे हैं सबके लिए चुनरी 
    ‘कबीर’, ‘रैदास’, ‘धन्ना’, ‘पीपा’ सब गा रहे हैं
    बनारस की गलियों में झूम-झूमकर 
    “जुलाहे इतने बनाओ कपड़े 
    कि बनारस में कोई नंगा न बचे
    सबकी काया रंग दो अपने रंग में।”
    बनारस मस्त होकर नाच रहा है—
    टूट गया है जाति-धर्म का झगड़ा
    कम-से-कम
    आज के इस शुभ दिन में तो बीच में न आएँ
    ससुरे शहर कोतवाल?

    स्रोत :
    • पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
    • संस्करण : 2018

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