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बचपन

bachpan

चंद्रेश्वर

अन्य

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और अधिकचंद्रेश्वर

    सुबह के सूरज का लाल गोल चक्का

    देखा था बार-बार

    घर के आँगन से

    बाबा के कंधे पर होकर सवार

    वे बचपन के कितने कोमल दिन थे

    अब युवा हूँ मैं मगर

    वह लाल गोल चक्का दहक रहा है

    मेरी स्मृतियों में नन्हा नाज़ुक

    फूल बनकर

    वे दिन झर रहे हैं हरसिंगार की तरह

    जब मैं गिलहरियों के पीछे भागा करता था

    ठीक गिलहरियों की तरह

    मुझे याद रहे हैं वे सवाल

    पाँचवीं कक्षा के

    जो मैंने पूछे थे

    अपने वर्ग शिक्षक से

    कि नन्हा कोमल ख़रगोश तेज़ क्यों दौड़ता है

    क्यों नहीं होते गधे के सिंग

    कि राक्षस क्यों हार जाता है

    बड़ा और बलवान होने के बावज़ूद

    मेरे कानों में अब भी बची है अनुगूँज

    जतसार की

    जिसे माँ गाती थी

    विरहा—जिसे गाता था

    गाँव का यार

    मेरी जीभ पर अब भी तैर रहा है स्वाद

    पके छितराए जामुन का

    जिन्हें खाते ही स्याही पुत जाती थी

    मेरे अंदर अब भी साबुत

    ज़िंदा बचा है बचपन!

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंद्रेश्वर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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