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और… प्रेम?!

aur… prem?!

उपांशु

अन्य

अन्य

उपांशु

और… प्रेम?!

उपांशु

और क्या ही मिला रातों की बेपरवाही में उन्हें,

दैहिक सुख की लालसा में जो, क्षीण होते रहे परस्पर?

स्पर्श?

बाँहों का रोओं पर,

गर्दन का छाती पर,

अँगूठों-नखों का पाँवों के तलवों पर।

प्रेम?!

टूट जाने की हद तक पूछता रहा अब तक साथ होने के मायने

और सवालों का बोझ डाल रात

निरुत्तरता में सीमित करती रही मेरा अब तक बिखरना।

देखा दैहिक वो सब जो उन्माद के शिखर पर मुमकिन है।

हाथों में हाथ, दाँतों पर वक्ष, होंठों पर नाम,

तुम्हारा मेरे, मेरा तुम्हारे; प्रेम? केवल एक अधूरी कल्पना है।

क्यों टूट जाऊँ इस हद तक कि अपने टुकड़े समेटना भी अधूरी कल्पना हो जाए?

मिला ही क्या हमें रातों की बेपरवाही में

इस निश्चितता के अलावा कि सारे सुख़न हमारे

दिल नोच फेंक देने पर मजबूर कर देंगे।

उन सबों की ग़ुलामी में…

उनकी ख़ुशी की ग़ुलामी में…

मेरा-तुम्हारे-तुम्हारा-मेरे साथ हो पाना…

आवाज़ों और तस्वीरों के सहारे…

किसी तरह… समय गुज़र जाए भी… फिर

उस दिन का क्या जब ये ख़ुदग़र्ज़ रोते हुए

अपना मालिकाना हक़ माँगने आएँगे।

कौन पोंछेगा हमारे बदन पर पड़े इनके आँसुओं के छाले?

जब नाम बदल देने से

ग़ुलामी की कोई भी गाथा प्रेमकथा नहीं हो सकती;

क्यों राख हो जाने दें ख़ाक-सी इनकी ख़ुशी

तुमसे-मेरे-मुझसे-तुम्हारे इस लगाव के लिए।

स्रोत :
  • रचनाकार : उपांशु
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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