Font by Mehr Nastaliq Web

हरी मक्खियाँ

hari makkhiyan

महमूद दरवेश

अन्य

अन्य

महमूद दरवेश

हरी मक्खियाँ

महमूद दरवेश

और अधिकमहमूद दरवेश

    मंज़र हरदम जैसा। गर्मी और पसीना और कुब्बते-तखय्युल उफुक्

    से परे देख पाने से क़ासिर। और आज, आने वाले कल से बेहतर।

    मगर जो नया है। वो है मरे हुए लोग। हर रोज़ पैदा होते हैं, और जब

    सोने की कोशिश करते हैं, मौत उन्हें उनके उनींदेपन से उठा ले जाती

    है एक बेख़्वाब नींद में। उनकी गिनती करने का कोई मतलब नहीं।

    उनमें से कोई किसी के आगे मदद को हाथ नहीं फैलाता। आवाज़ें

    खुले मैदान में ढूँढ़ती हैं लफ़्ज़, और प्रतिध्वनि वापस लौटती है

    साफ़-साफ़, चोट खाई हुई सी: “यहाँ कोई नहीं। मगर कोई है

    जो कहता है क़ातिल का हक है क़ातिलाना नफ़स का बचाव

    जबकि मरे हुए, थोड़ी देर से, कहते हैं सताए हुए का हक है चीख़ने

    के हक का बचाव। इबादत की आवाज़ मामूली-से नज़र आते

    जनाज़ों में शामिल होने को उचकती है : ताबूत हड़बड़ी में उठते हैं

    और हड़बड़ी में ही दफ़्न हो जाते हैं। दफ़्न की रस्में अदा करने का

    वक़्त नहीं। दूसरे धावों से तेज़ी से रहे हैं और मुर्दे-अकेले अकेले,

    या जत्थों में, या समूचा परिवार, कोई यतीम या ग़मज़दा माँ-बाप पीछे

    छोड़े बग़ैर! आसमान भूरेपन से लदा और समंदर भूरे-नीलेपन में

    ग़मज़दा। लेकिन हरी मक्खियों के झुंड इस कोशिश में, कि ख़ून का

    रंग कैमरे की ज़द में आने पाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 331)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक सुरेश सलिल, कैथराइन कोहैम
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए