हे हमर चिर प्रेयसी अज्ञात
छी अहाँ चिरयौवना उद्दाम
रहइ छी पर्दाक भीतर किन्तु
हरइ छी सभ केर मन ओ प्राण
छथि असंख्यो प्रेमपात्र अहाँक
सभक लग जाइ छी अहाँ एक बेर
अछि परम निष्ठुर अहाँ केर स्पर्श
छुइल जकरा से मुइल तत्काल
क्रूर विषकन्या जकाँ चुपचाप
तेहन आलिंगन छिऐक करैत
होइछ ठामहिं लोक संज्ञा शून्य
सकल सुधिबुधि जाइ छैक बिलाय
औ धरै छी अहाँ अप्पन बाट
पुनः घुरियो कऽ छिऐ न तकैत
जाइ छी दोसर शिकारक जोह
छी अहाँ निर्बाध ओ स्वच्छन्द
द्वार क्यो नहि कय सकै अछि बंद
नऽव हो वा बूढ़
चतुर अथवा मूढ़
गति अहाँ केर गूढ़
सभक गर लगबैत छी निज फंद
लखि अहाँकेँ बुद्धि होइछ मंद
आइधरि ऐलहुँ न हमरा लऽग
आइधरि देखल अहाँक न रूप
आइधरि नहि भेल स्पर्श अहाँक
आइधरि भेटल अहाँक न स्वाद
किंतु एतबा छी अवश्य जनैत
एक दिन ऐबे करब हे देवि!
शिशिर अथवा ग्रीष्म वा बरिसात
भादवक घनघोर झंझावात
वा बसंतक मदोन्मत्त बसात
वा शरद केर शांत निर्मल प्रात
ऐब कहियो अहाँ कोनो बेर
छी ने बुझइत अहाँ देर-सबेर
जाहि दिन ऐबाक हो से आउ
हम कहाँ धरि आब और डराउ?
जखन बचबा केर अछि न उपाय
कहाँ जाऊ, कोन ठाम पड़ाउ?
हे अनागत प्रेयसी अज्ञात!
हम कहै छी हृदयसँ ई बात
करब हम निर्भय अहाँक सत्कार
छी वरण करबाक हित तैयार
आबि जाउ होय जहिया मऽन
अछि समर्पण हमर तन मन धऽन
हे हमर चिर प्रेयसी अज्ञात!
- पुस्तक : हरिमोहन झा रचनावली खण्ड-4 (पृष्ठ 81)
- रचनाकार : हरिमोहन झा
- प्रकाशन : जनसीदन प्रकाशन
- संस्करण : 1999
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