अम्मा

amma

सौम्य मालवीय

अम्मा

तुम खड़ी होगी दरवाज़े पर

दरवाज़ा जो तुमसे कुछ ही बड़ा है

मुझे भी लगभग नाप लेता है पूरा का पूरा

अगर क़द के ज़रा बढ़ते हुए क्रम में

हम तीनों साथ ही रखे जाएँ

तो एक महीन कोण वाली तिरछी रेखा मिलेगी

अम्मा क्या इसीलिए मुझे,

सड़क से हल्का कोण बनाकर कट जाने वाले रास्ते

इतना आकर्षित करते हैं?

अम्मा पता है

तुम्हारे क़द के दरवाज़े से ज़रा-सा ही छोटा पहुँचने के बाइस

मैं दुनिया के कितने और दरवाज़ों से

सदा के लिए विमुख हो गया हूँ!

बड़े-बड़े फाटक ऐसा लगता है जैसे

तुम्हारी अवहेलना में खड़े हों

देखकर उन्हें मैं दूर से ही राह बदल देता हूँ

और तो और

वे दरवाज़े जो सादे लोहे की ठंडक के साथ नहीं बजते

मैं उनके पास भी नहीं जाता

पापा का फ़ोन पर

दरवाज़े की खड़खड़ाहट सुनाना

और तुम्हारी हँसी का भी छनकर जाना मेरे कानों तक

ख़ून में लोहे की मिक़दार कम नहीं होने देता

उस दरवाज़े का ही दिलासा होगा अम्मा

कि मैं कभी घबराया नहीं पटरियों के और रेल के लोहे से

बल्कि ट्रेन के चलने में मैंने सुना

घर के दरवाज़े का खुलना बंद होना

और पटरियों के अगल-बग़ल, गिट्टियों के बीच भी

खिले हुए कास के फूल मैंने देखे

अम्मा जैसे गैलीलियो के मिथक में

पीसा की मीनार है

मेरे स्वगत कथन में हमेशा

कुछ तुमसे निकलते हुए क़द वाला दरवाज़ा रहता है

मेरे सारे प्रयोग मानो अब भी उसी चौखट से संदर्भ पाते हैं

जैसे आदिम गुफाओं में

बने चित्र गतिशील हो जाएँ

वैसे ही दरवाज़े की देह पर

काली-भूरी स्मृतियों का खेल चलता है

अक्सर ही मेरे सपनों में

निशीथ रात्रि में जागकर पानी पीते हुए सोचता हूँ मैं

ओस में भीग रहा होगा घर का दरवाज़ा

सोच में डूबे बँधे हुए हाथों-सा एकाकी

और तुम सोई हुई होगी

दरवाज़े से कुछ कमतर थमा हुआ क़द तुम्हारा

पूरा का पूरा समाया हुआ होगा बिस्तर में।

स्रोत :
  • रचनाकार : सौम्य मालवीय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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