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आदमी

adami

वसीम अकरम

अन्य

अन्य

और अधिकवसीम अकरम

    घिसट रहा है

    पिछवाड़ा पिघलकर

    ख़ून से लथपथ हो रहा है

    फिर भी जिए जा रहा है।

    ख़ून के आँसुओं में

    उसकी आँखें उबल रही हैं

    मुँह से बोल नहीं

    सिर्फ़ आह फूटती है

    फिर भी जिए जा रहा है।

    पूरा दिन सिर पे सूरज उठाए फिरता है

    पूरी रात चाँद की तपन से

    अपने ख़्वाबों को जलाता रहता है

    दर्द खाता है, ज़ख़्म सोता है

    फिर भी जी रहा है।

    बेख़ुदी में, बेबसी में

    ख़ुद को कोसता है

    ज़िंदगी को गाली देता है

    अपनी मौत माँगता है

    इतनी तसल्ली से

    कि वह ज़िंदा है और जीता रहता है।

    हालात की गर्दिश में

    हादसों के हाथों

    रात-दिन पिसता रहता है।

    महरूम है, कभी रोटी से

    कभी दौलत से, कभी शोहरत से

    और कभी सकून से

    फिर भी जीना तो है ही

    इसलिए जीता रहता है।

    मजबूर है ज़िंदगी से

    कि ज़िंदा रहना ज़रूरी है

    ज़िंदगी को जानने की कोशिश में

    जीता रहता है

    उम्रों तक, सदियों तक।

    वह जानता है

    कि एक दिन उसे मरना है

    मगर, इसी इंतिज़ार में, घुट-घुट के

    जीता रहता है

    ये कोई और नहीं

    वहीं आदमी है

    जिसे लोग

    बहुत बुरा समझते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वसीम अकरम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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