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नीलकमल

nilakmal

वीरेंद्र कुमार जैन

मेरी नीलकमल!

जन्मांतरों की कितनी रातों में

तुम्हारे अनगिन पाँखुरी-प्रदेशों में

अभिसरण किया है मैंने

अपने अंतिम निजत्व की खोज में :

तुम्हारी अगोचर नील रगों में हैं

जाने कितनी दुर्भेद्य गिरिमालाएँ।

उनमें विचित्र ममताली सुरभियों से आविल

अगाध मार्दव की सर्प-गुंजल्की गुहाएँ,

उनके अगम्य अँधियारे छोरों में

रह-रहकर चमक जाती हैं

तरंगायित अग्निम मणियाँ,

मेरे व्याकुल संचरण से

वे मणियाँ कभी-कभी

इंद्र-धनुषी झीलों में लहरा उठती हैं।

और एकाएक

उनकी निःसीमगामी लहरों पर

एक श्वेता हंसिनी पंख पसारे

स्निग्ध निश्चल उड़ती दिखाई पड़ जाती है :

...अनायास ही मेरा आपा

तट पर केंचुली-सा उतर जाता है

और मैं उस हंसिनी के पंखों का संवाही

आकाश बन छा जाता हूँ—

निस्पंद, सुस्थिर, अनाहत प्रवाही...

और दिन उगते उगते

फूटते उजियाले के सम्मुख

जाने कब... जाने कब...,

तुम अपनी पाँखुरियाँ मूँद लेती हो,

मेरी नीलकमल...!

...पर उस फूटते उजाले के शिखर पर

जो हिरण्यमय पुरुष उदय होता है,

वह तुम्हारी ही अगम्य अँधियारी

कोख का जाया है—

सो कौन जान पाया है...!

स्रोत :
  • पुस्तक : कहीं और (पृष्ठ 65)
  • रचनाकार : वीरेंद्र कुमार जैन
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2007

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