मशक जातक

mashak jatak

अज्ञात

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मशक जातक

अज्ञात

प्राचीन काल में वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त के समय में बोधिसत्व वाणिज्य करके जीविका निर्वाह करते थे। उन दिनों काशी राज्य के एक प्रत्यंत ग्राम में बहुत से सूत्रधर या बढ़ई रहा करते थे। उनमें से पके हुए वालों वाला एक सूत्रधर एक दिन काठ का एक टुकड़ा रँदकर चौरस कर रहा था। इतने में एक मच्छड़ ने उसके माथे पर बैठकर ज़ोर से उसे काटा। सूत्रधर का पुत्र पास ही बैठा हुआ था। उसने पुत्र से कहा—मेरे माथे पर मच्छड़ बैठा हुआ काट रहा है, तुम उसे उड़ा दो। पुत्र ने कहा—आप स्थिर होकर बैठे रहिए। मैं एक ही आघात में मच्छड़ उड़ा देता हूँ। इतने में बोधिसत्व भी वहाँ पहुँचकर उस सूत्रधर के पास जा बैठे। सूत्रधर ने फिर कहा—बेटा, मच्छड़ उड़ा दो। इस पर पुत्र ने तेज़ धारवाली एक कुल्हाड़ी उठाकर यह कहते हुए ज़ोर से उसके सिर पर मारी कि लो मच्छड़ को मार डालता हूँ। उस आघात से वृद्ध का मस्तक फट गया और वह तुरंत मर गया। उस समय बोधिसत्व ने सोचा कि ऐसे हितैषी की अपेक्षा तो बुद्धिमान् शत्रु ही अच्छा है; क्योंकि वह दंड के भय से मनुष्य की हत्या तो नहीं करेगा। इस पर उन्होंने नीचे लिखे आशय की गाथा कही—

बुद्धिमान् शत्रु भी अच्छा है। मूर्ख मित्र किस काम का! इस महामूर्ख पुत्र ने मच्छड़ मारते मारते अपने पिता को मार डाला।

इसके उपरांत बोधिसत्व अपने काम से कहीं और चले गए। सूत्रधर के जाति-भाइयों ने उसका मृतक संस्कार किया।

स्रोत :
  • पुस्तक : जातक कथा-माला, पहला भाग (पृष्ठ 69)
  • प्रकाशन : साहित्य-रत्नमाला कार्यालय

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