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ये शहर

ye shahr

डॉ. वेद मित्र शुक्ल

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और अधिकडॉ. वेद मित्र शुक्ल

    ये शहर तो किराए का घर ही रहा,

    अपने बच्चे लिए दरबदर ही रहा।

    यारो, भाया बेटों का होना बड़ा,

    देर तक रात जब वो बाहर ही रहा।

    पढ़ ही जाएँगा वह एक दिन सोचकर,

    छोड़ कर गाँव अपना शहर ही रहा।

    नौकरी जाए मिल तो है अच्छा बहुत,

    फिर भी खाली कहाँ कुछ तो कर ही रहा।

    जो भी चाहा दिया था ख़ुशी से उसे,

    माँगना घर में हिस्सा ज़हर ही रहा।

    गया था शहर ख़ास बनने का जो—

    उसका आना मगर बेअसर ही रहा।

    रूपए कुछ कमाने में यों जुट गया,

    अपनी सेहत से तो बेख़बर ही रहा।

    उसने की नौकरी हाए, जिनके लिए,

    उनसे रहकर अलग बेनज़र ही रहा।

    दुनियादारी नहीं सीख पाया कभी,

    वो इधर ही रहा या उधर ही रहा।

    चैक चहका किया था जो बीते बरस,

    अब चिड़ियाँ है वो शजर ही रहा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दरिया की बातें पत्थर से (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : डॉ. वेद मित्र शुक्ल
    • प्रकाशन : सर्व भाषा ट्रस्ट
    • संस्करण : 2024

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