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हो न सके खुलकर अपनों से

ho na sake khulkar apnon se

नईम

अन्य

अन्य

नईम

हो न सके खुलकर अपनों से

नईम

और अधिकनईम

    हो सके खुलकर अपनों से,

    वो भी कब किसके हो पाए?

    बीच धार में खड़े हुए हम,

    विकट ज़िंदगी का ये मंजर,

    पार उतरना, किंतु डर रहे,

    ढीले-ढाले अंजर-पंजर।

    ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,

    नींद हम अपनी सो पाए।

    हो सके हम पूत ठीक से,

    पिता हो पाए क़रीब से।

    रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,

    महँगाई में इस ग़रीब के?

    मोल नहीं जाने वचनों के

    अपने बोझ हम ढो पाए।

    इनसे भी क्या गिला करें हम,

    उनकी भी अपनी मजबूरी।

    मिली कहाँ अब तक इन उनकी,

    मेहनत की वाज़िब मज़दूरी?

    सोच-समझकर सौ जतनों से

    दाग़ हम अपने धो पाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लिख सकूँ तो— (पृष्ठ 13)
    • रचनाकार : नईम
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2003

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