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चल रहा है आदमी

chal raha hai aadamii

गोपाल सिंह नेपाली

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गोपाल सिंह नेपाली

चल रहा है आदमी

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    जल रही है ज़िंदगी, देह की मशाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    यह वही गली जहाँ डोलियाँ लचक चलीं

    ताज-तख़्त छोड़कर टोलियाँ खिसक चलीं

    डोलियाँ निहारकर अर्थियाँ खिसक चलीं

    मौत है तो है, किसे बाद का ख़याल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    लोग देखते रहे, लाश देखती रही

    देह राख बन गई, साँस देखती रही

    रूप के स्वरूप को प्यास देखती रही

    आँसुओं से तर यहाँ, प्यार का रूमाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    एक दीप बुझ गया, दूसरा खड़ा हुआ

    दूसरे से तीसरा, आन पर चढ़ा हुआ

    मंज़िलों से पास है, हर क़दम बढ़ा हुआ

    बढ़ रहा हुजूम है, बादलों की चाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    ज़िंदगी की दौड़ में, जो गिरे, गिरे रहे

    मोड़ पर पड़ाव के, जो फिरे, फिरे रहे

    या दरो-दिवार से, जो घिरे, घिरे रहे

    कारवाँ चला गया, वक़्त का सवाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    आदमी ने झूमके उम्र यों निकाल दी

    मौत के मज़ार पर ज़िंदगी उछाल दी

    मर गया तो और के, हाथ में मशाल दी

    हम मरे कि तुम मरे, कुछ नहीं मलाल है

    भोर को गुलाल है

    साथ अंधकार के चल रहे चिराग़ हैं

    मौत को गली-गली छल रहे चिराग़ हैं

    आदमी की शक्ल में, जल रहे चिराग़ हैं

    जल रहे चिराग़ हैं, ज़िंदगी निहाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    वक़्त है है जगह, यह हिसाब के लिए

    उठ रहा सवाल है बस जवाब के लिए

    आदमी तड़प रहा, इंकलाब के लिए

    ख़ून है इसीलिए, इसीलिए उबाल है

    चल रहा है आदमी, साँझ लाल-लाल है

    भोर को गुलाल है

    स्रोत :
    • पुस्तक : संकलित कविताएँ (पृष्ठ 118)
    • संपादक : नंदकिशोर नंदन
    • रचनाकार : गोपाल सिंह नेपाली
    • प्रकाशन : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया
    • संस्करण : 2013

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