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सूर्यनारायण की कथा

surynarayan ki katha

अतपत नगरी का एक ग़रीब ब्राह्मण लकड़ियों और घास के लिए हर रोज़ जंगल में जाता था। एक दिन उसने वहाँ वनदेवियों को सूरज भगवान की पूजा करते देखा। सूर्यनारायण के आह्वान का उनका अनुष्ठान अनूठा था।

ब्राह्मण ने साहस जुटाकर उनसे पूछा कि वे क्या कर रही हैं। उन्होंने उत्तर दिया, “यह सूर्यनारायण का अनुष्ठान है।” “मुझे भी इसकी विधि सिखाइए!”

वनदेवियों ने कहा, “नहीं, यह बहुत शक्तिशाली अनुष्ठान है। यदि हम तुम्हें सिखा दें तो संभवतः तुम अहंकारी हो जाओ और इसे विधिपूर्वक करो।” ब्राह्मण ने वचन दिया, “नहीं, मैं विनम्रतापूर्वक संपूर्ण विधि का भली भांति पालन करूँगा।” तब वनदेवियों ने उसे अनुष्ठान की विधि समझाई—सावन के पहले रविवार को चंदनसार से सूर्यनारायण का चित्र बनाकर उसे पुष्प और फल अर्पित करे। उसके बाद छह महीने तक हर रविवार को वह ऐसा ही करे। फिर अगले छह महीने ग़रीबों को दान दे।

ब्राह्मण घर गया और सावन के पहले रविवार से अनुष्ठान आरंभ कर दिया। उसके अनुष्ठान से सूरज भगवान बहुत प्रसन्न हुए। धन-धान्य से ब्राह्मण का घर भर गया। उसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। एक दिन रानी ने उसे बुलवाया। राजमहल में जाते समय भय से उसकी टाँगें काँप रही थीं। रानी ने उसे बैठने को आसन दिया और सहृदयता से कहने लगी, “डरने की कोई बात नहीं है। हमने आपको इसलिए बुलवाया है कि हम चाहते हैं आप अपनी बेटियाँ हमें दें।” ब्राह्मण ने झिझकते हुए कहा, “मेरी बेटियाँ बहुत तंगी में बड़ी हुई हैं। राजवंश में उनके साथ चाकरों के समान व्यवहार किया जाएगा।” रानी ने उसे आश्वस्त किया, “इसकी आप चिंता करें। उनके साथ राजसी व्यवहार किया जाएगा। एक का राजा से विवाह होगा और दूसरी का मंत्री से।”

ब्राह्मण ने ख़ुशी-ख़ुशी रानी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शीघ्र ही विवाह हो गए और ब्राह्मण की बेटियाँ ससुराल चली गईं। पूरे बारह बरस ब्राह्मण उनसे मिलने नहीं गया। वह अपने काम और अनुष्ठान में व्यस्त था। अंततः बारह बरस बाद उसने बेटियों से मिलने की सोची। पहले वह बड़ी बेटी के पास गया। बड़ी बेटी राजा से ब्याही थी। बेटी ने पिता को रत्नजड़ित चौकी पर बिठाया, सुगंधित जल से उसके हाथ-पैर धुलवाए और मिठाई परोसी। ब्राह्मण ने कहा, “जलपान से पहले तुम्हें मेरी कथा सुननी होगी।” पर बेटी ने कहा, “नहीं बाबा, आज मुझे अवकाश नहीं। महाराज आखेट के लिए प्रस्थान करने वाले हैं। मुझे उनके खाने की व्यवस्था करनी है।” ब्राह्मण को उसका व्यवहार बहुत अशिष्ट लगा। वह क्रुद्ध होकर वहाँ से चल पड़ा।

वहाँ से वह छोटी बेटी के पास गया जो मंत्री को ब्याही थी। पिता को देखकर बेटी बहुत प्रसन्न हुई। बेटी ने उसे नक्काशीदार चौकी पर बिठाया, सुगंधित जल से उसके हाथ-पाँव धुलवाए और उसके खाने के लिए मिठाई लेकर आई। ब्राह्मण ने कहा, “बेटी, जलपान से पहले तुम्हें मेरी कथा सुननी होगी।” बेटी ने कहा, “अवश्य बाबा! कथा सुनकर मुझे प्रसन्नता होगी।” यह कहकर वह भीतर से छह मोती लाई। तीन मोती पिता के हाथ पर रखे और तीन अपने हाथ में रखे। यह कथा ब्राह्मण ने आज से पहले किसी को नहीं सुनाई थी। उसने बेटी को बताया कि कैसे वह वनदेवियों से मिला और कैसे उन्होंने उसे सूर्यनारायण का अनुष्ठान सिखाया। बेटी ने एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से सुना। फिर ब्राह्मण ने मुदित मन से जलपान ग्रहण किया और घर लौट आया। पंडिताइन ने बेटियों की कुशलक्षेम पूछी। ब्राह्मण ने उसे सारी बातें बताई और कहा, “बड़ी वाली ने मेरी कथा नहीं सुनी। उसे इसका फल भुगतना पड़ेगा।”

और वही हुआ। उसका पति सेना लेकर दूसरे राज्य पर आक्रमण करने गया और वापस नहीं लौटा। पर दूसरी बेटी ने उसकी कथा सुनी थी, सो वह सुखी थी। उसकी समृद्धि दिनोंदिन बढ़ती गई। दुर्भाग्य ने बड़ी बेटी का पिंड नहीं छोड़ा। उसके लिए एक-एक दिन काटना दूभर हो गया। एक दिन उसने अपने बड़े बेटे से कहा, “घर में अब कुछ नहीं है। अपनी मौसी के पास जाओ और कोई उपहार लेकर आओ! वह जो दे, घर ले आना!” अगले रविवार को राजकुमार मौसी के शहर गया। वहाँ वह तालाब पर गया और स्नान करने आईं औरतों से पूछा, “तुम किसके यहाँ काम करती हो?” उन्होंने उत्तर दिया, “हम मंत्री की पत्नी की दासियाँ हैं।” राजकुमार ने कहा, “अपनी मालकिन से जाकर कहो कि उनकी बहन बेटा आया यह भी कहना कि उसके कपड़े फटे हुए हैं इसलिए वे उसे पिछले दरवाज़े से घर में आने दें!” दासियाँ उसे पिछले दरवाज़े से भीतर ले गईं। मौसी ने उसके नहाने के लिए सुवासित जल रखवाया, पहनने को नए कपड़े दिए और राजसी भोजन कराया। फिर उसने बेटे को मोहरों से भरा हुआ कद्दू दिया। वह चलने लगा तो मौसी ने कहा, “इसे संभालकर ले जाना! कहीं खोना मत!” पर रास्ते में है। सूर्यनारायण ने माली के भेष में मोहरों से भरा वह कद्दू चुरा लिया। वह घर पहुँचा तो माँ ने उससे पूछा कि मौसी ने उसे क्या दिया। राजकुमार ने ख़ाली हाथ दिखाते हुए कहा, “जो भाग्य ने दिया वह कर्म ने छीन लिया। मौसी ने जो दिया वह रास्ते में खो गया।”

अगले रविवार को रानी ने दूसरे बेटे को भेजा। वह भी शहर के तालाब पर गया और नहाने-धोने आईं औरतों से पूछा, “तुम कहाँ काम करती हो?” औरतों ने कहा, “हम मंत्री की पत्नी की दासियाँ हैं।”

“अपनी मालकिन से कहो कि उनकी बहन का बेटा आया है।” उसे भी पिछले दरवाज़े से भीतर ले जाया गया। नहाने और नए कपड़े पहनने के बाद राजकुमार ने भोजन किया। वह चलने लगा तो मौसी ने उसे मोहरों से भरी हुई खोखली छड़ी दी। बोली, “इसे संभालकर ले जाना! कहीं खो मत देना!” रास्ते में सूरज भगवान ग्वाले का रूप धरकर आए और उसकी छड़ी चुरा ली। वह घर पहुँचा तो रानी ने उससे पूछा कि मौसी ने उसे क्या दिया। राजकुमार ने ख़ाली हाथ हिलाकर कहा, “जो भाग्य ने दिया वह कर्म ने छीन लिया।”

तीसरे रविवार को रानी ने तीसरे बेटे को भेजा। वह भी सीधे तालाब पर गया। मौसी ने उसकी भी वैसी ही ख़ातिरदारी की। उसे नहलवाया, कपड़े दिए और खाना खिलाया। चलते समय उसने उसे मोहरों से भरा हुआ खोखला नारियल दिया और कहा, “इसे संभालकर ले जाना! खो मत देना!” रास्ते में वह एक कुएँ की जगत पर सुस्ताने के लिए रुका। ज्यों ही उसने नारियल जगत पर रखा वह लुढ़ककर कुएँ में गिर गया—छपाक! वह घर पहुँचा तो रानी माँ ने पूछा कि वह क्या लाया। राजकुमार ने जवाब दिया, “जो भाग्य ने दिया वह कर्म ने छीन लिया।”

चौथा राजकुमार गया तब भी वही हुआ। उसे मोहरों से भरा कुल्हड़ जिसे सूर्यनारायण चील बनकर झपट ले गए।

पाँचवें-रविवार को रानी ख़ुद गई और जाकर तालाब पर खड़ी हो गई। छोटी बहन स्वयं उसे लिवाने आई और पिछले दरवाज़े से घर ले गई। नहलाने के बाद उसे नए कपड़े दिए और खाना खिलाया। फिर मंत्री की पत्नी ने बड़ी बहन को बताया कि उसकी विपत्ति का कारण यह है कि उसने बाबा की कथा सुनने से मना कर दिया था। फिर उसने दीदी को पूरी कथा सुनाई। रानी ने बहुत ध्यान से कथा सुनी और सावन तक बहन के पास ही रही। सावन में दोनों बहनों ने सूरज भगवान की आराधना की।

रानी का अनुष्ठान पूरा भी नहीं हुआ था कि उसके दिन फिर गए। उसे समाचार मिला कि बरसों के युद्ध के बाद उसके पति विजयी होकर अकूत धन के साथ लौट रहे हैं। राजधानी लौटते हुए राजा अपनी साली और सादू से मिलने के लिए वहाँ रुका। जब उसने सुना कि उसकी रानी भी यहीं है तो उसे लिवाने के लिए उसने पालकी और कुछ दासियाँ भेजीं। नन्हें भानजे चिल्लाते हुए रानी के पास पहुँचे, “मौसी, मौसी, तुम्हें लेने के लिए छत्र वाली पालकी आई है। साथ में हाथी, घोड़े और सैनिक भी हैं।” सब देखने के लिए बाहर भागे। वर्षों के विरह और व्यथा के उपरांत राजा और रानी ने एक-दूसरे का हालचाल पूछा। बहनों ने एक-दूसरे को मूल्यवान उपहार और रेशमी वस्त्र दिए। अगले दिन राजा और रानी ने अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया।

पहले पड़ाव पर जब खाना बन गया तो रानी ने राजा के लिए और अपने लिए थाल परोसे। तभी उसे बहन से सुनी कथा याद आई। उसने नौकरों को आदेश दिया कि वे पास के गाँव में जाएँ और किसी निर्धन को लाएँ जो भूखा हो। गाँव में उन्हें ऐसा कोई नहीं मिला। पर वापस आते समय उन्हें एक भूखा लकड़हारा मिल गया। वे उसे रानी के पास ले गए। रानी ने छह मोती निकाले। तीन लकड़हारे को दिए और तीन अपने हाथ में रखे। फिर रानी ने उसे अपने पिता और वनदेवियों की कथा सुनाई। लकड़हारे का रोम-रोम कान बन गया। कथा सुनते ही उसके गट्ठर की सारी लकड़ियाँ सोने की हो गईं। उसने शपथ ली कि वह पूर्ण विधिविधान से सूर्यनारायण का अनुष्ठान करेगा। बिलकुल वैसे ही जैसे वनदेवियों ने ब्राह्मण को सिखाया था।

अगले दिन राजा-रानी ने दल-बल के साथ फिर पड़ाव डाला। खाना बन गया तो रानी ने राजा के लिए और अपने लिए खाना परोसकर सेवकों को किसी निर्धन और भूखे को लाने का आदेश दिया। आज वे एक किसान को लाए जिसकी फसल मुरझा गई थी और कुआँ सूख गया था। रानी ने छह मोती निकाले। तीन किसान को दिए और तीन अपने हाथ में रखे। फिर उसने उसे अपने पिता और वनदेवियों की कथा सुनाई। कथा संपूर्ण होने से पहले ही उसकी फसल फिर हरी हो गई और उसके कुएँ में पानी का सोता फूट पड़ा। वापस जाते समय उल्लसित किसान ने शपथ ली कि वह संपूर्ण विधिविधान के साथ सूर्यनारायण का अनुष्ठान करेगा, जैसा कि वनदेवियों ने ब्राह्मण को सिखाया था।

तीसरे पड़ाव पर रानी ने एक बुढ़िया को सूरज भगवान की कथा सुनाई। बुढ़िया का बेटा जंगल में खो गया था, दूसरा तालाब में डूब गया था और तीसरा साँप काटने से मर गया था। रानी की कथा सुनते ही बुढ़िया के तीनों बेटे एक-एक कर पड़ाव पर गए। बुढ़िया ख़ुशी के आँसू बहाते हुए वहाँ से गई। उसने प्रण किया कि वह सूरज भगवान की उसी विधि से आराधना करेगी जो वनदेवियों ने ब्राह्मण को सिखाई थी।

चौथे पड़ाव पर रानी के चाकर एक हाथ-पाँव-विहीन आदमी को लाए। उसकी आँखें इतनी कमज़ोर थीं कि उसे मुश्किल से ही कुछ दिखता था। यहाँ तक कि उसका कोई नाम भी नहीं था। लोग उसे लोथ कहते थे। चाकरों ने उसे जब देखा तब वह मुँह के बल पड़ा था। वे उसे उठाकर पड़ाव पर ले आए। रानी ने उसे नहलवाया और नए कपड़े पहनने को दिए। फिर उसने छह मोती निकाले। तीन ‘लोथ’ के पेट पर रखे और तीन अपने हाथ में रखे। फिर उसने उसे अपने पिता और वनदेवियों की कथा सुनाई। अपाहिज आदमी ने पूरी एकाग्रता से कथा सुनी। कथा सुनते ही उसके हाथ-पैर निकल आए और आँखों की जोत लौट आई। वह भी जाते समय अतीव प्रसन्न और कृतज्ञ था। उसने शपथ ली कि वह सूर्यनारायण की विधिपूर्वक आराधना करेगा जैसा कि वनदेवियों ने ब्राह्मण को बताया था।

अगले दिन राजा और रानी अपनी राजधानी पहुँच गए। वे महल में भोजन करने के लिए बैठे तो सूरज भगवान स्वयं प्रकट हुए और उनके साथ भोजन करने की मंशा दरसाई। राजन ने महल के सारे दरवाज़े खुलवा दिए और अनेकाअनेक उत्कृष्ठ व्यंजन बनाने का आदेश दिया। प्रत्येक पकवान को छह अलग-अलग ख़ुशबुओं के साथ परोसा गया।

सूर्यनारायण और राजा खाने के लिए बैठे। सूर्यनारायण को पहले कौर में ही एक लंबा बाल दिखा। वह क्रोध से चिल्लाया, “यह किस अधम स्त्री का बाल है?” रानी भय से पीली पड़ गई। उसे याद आया कि अपनी विपत्ति के बारह बरसों में वह ओलती के नीचे बैठकर कंघी किया करती थी। संभवतः यह उसी का बाल है। वह सूरज भगवान के पैरों में गिर पड़ी। पर सूरज भगवान ने उसे माफ़ नहीं किया। अंततः रानी ने मोटी-झोंटी कंबल ओढ़ी, ओलती में से एक लकड़ी निकाली और उस लकड़ी और बाल को शहर के बाहर ले जाकर अपने बाएँ कंधे के ऊपर से फेंका। तब कहीं सूर्यनारायण का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने भोजन ग्रहण किया। ब्राह्मण, राजा, रानी, उसके बच्चे, मंत्री की पत्नी, लकड़हारा, किसान, बुढ़िया और वह आदमी जिसे ‘लोथ’ कहा जाता था को सूर्यनारायण की अनुकंपा से लंबी आयु मिली। वे जब तक जीए सुख से जीए।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 216)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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