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दीवारों से कहो

divaron se kaho

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एक विधवा अपने दो बेटों और बहुओं के साथ रहती थी। बेटे और बहूएँ उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार करते थे। उस पर फब्तियाँ कसते थे। गालियाँ देते थे। कोई भी तो ऐसा नहीं था जिससे बुढ़िया सुख-दुख की बात कर सके। अपनी व्यथा अपने तक रखने से वह दिनोंदिन मोटी होती चली गई। बेटों और बहुओं को उसे छेड़ने का एक और बहाना मिल गया। वे उसके मोटे होते जाने का मज़ाक़ उड़ाते और कहते कि इस उम्र में चटोरापन अच्छा नहीं।

एक दिन बेटे और बहुएँ कहीं बाहर गए हुए थे। बुढ़िया मारे दुख के घर से निकल पड़ी। भटकते-भटकते वह बस्ती के बाहर चली गई। वहाँ उसे एक उजाड़ मकान दिखा। वह जीर्ण और छताविहीन था। वह उस खंडहर के अंदर चली गई। खंडहर के अंदर उसने सहसा अपने को इतना दुखी और अकेला अनुभव किया जितना पहले कभी नहीं किया था। उसे लगा कि वह अपनी व्यथा कहनी ही होगी।

सो बड़े बेटे से उसे जो शिकायतें थीं वे सब अपनी सामने वाली दीवार को कह दीं। बात पूरी होते ही उसकी व्यथा के बोझ से वह दीवार भरभरा कर गिर गई। दीवार की ठौर अब मलबे का ढेर पड़ा था। साथ ही बुढ़िया का मोटापा भी कुछ कम हो गया।

फिर वह दूसरी दीवार की तरफ़ मुड़ी और उसे बड़ी बहू से मिली तकलीफ़ें सुनाने लगी। वह दीवार भी उसकी पीड़ा सह सकी और मलबे का ढेर बन गई। बुढ़िया का मोटापा कुछ और कम हो गया। उसके बाद वह तीसरी दीवार से मुख़ातिब हुई और उसे छोटे बेटे की करतूतें कहने लगी। फिर उसने बची हुई चौथी दीवार को छोटी बहू के कारनामे सुनाए। चौथी दीवार का भी वही हश्र हुआ।

मलबे के ढेर के बीच खड़ी बुढ़िया ने अपने को बहुत हलका महसूस किया—तन और मन दोनों से। उसने देखा व्यथा से उसका जितना वज़न बढ़ गया था उससे छुटकारा मिल गया है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 1)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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